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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्यात्म और नियतिवादका सम्यग्दर्शन ४५ के निमित्तसे। पुद्गलमें इतनी विशेषता है कि उसकी अन्य सजातीय पुद्गलोंसे मिलकर स्कन्ध-पर्याय भी होती है पर जीवकी दूसरे जीवसे मिलकर स्कन्ध पर्याय नहीं होती। दो विजातीय द्रव्य बँधकर एक पर्याय प्राप्त नहीं कर सकते । इन दो द्रव्योंके विविध परिणमनोंका स्थूलरूप यह दश्य जगत् है ।। द्रव्य-परिणमन-प्रत्येक द्रव्य परिणामीनित्य है । पूवपर्याय नष्ट होती है उत्तर उत्पन्न होती है पर मलद्रव्यकी धारा अविच्छिन्न चलती है। यही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता प्रत्येक द्रव्यका निजी स्वरूप है। धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्योंका सदा शुद्ध परिणमन ही होता है। जीवद्रव्यमें जो मुक्त जीव हैं उनका परिणमन शुद्ध ही होता है कभी भी अशुद्ध नहीं होता। संसारी जीव और अनन्त पुद्गलद्रव्यका शुद्ध और अशुद्ध दोनों ही प्रकारका परिण मन होता है। इतनी विशेषता है है कि जो संसारी जीव एकबार मुक्त होकर शुद्ध परिणमनका अधिकारी हुआ वह फिर कभी भी अनुद्ध नहीं होगा, पर पद्गलद्रव्यका कोई नियम नहीं है। वे कभी स्कन्ध बनकर अशुद्ध परिणमन करते हैं तो परिमाणुरूप होकर अपनी शुद्ध अवस्थामें आ जाते हैं फिर स्कन्ध बन जाते हैं इस तरह उनका विविध परिणमन होता रहता है। जीव और पुदगलमें वैभाविकी शक्ति है. उसके कारण विभाव परिणमनको भी प्राप्त होते हैं। द्रव्यगतशक्ति-धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन द्रव्य एक एक एक है। कालाण असंख्यात हैं। प्रत्येक कालाणु में एक-जसी शक्तियाँ है। वर्तना करनेकी जितने अविभागप्रतिच्छेदवाली शक्ति एक कालाणुगे है वैसी ही दूसरे कालाणुमें। इस तरह कालाणओंमें परस्पर शक्ति-विभिन्नता या परिणमनविभिन्नता नहीं है। पुद्गलद्रव्यके एक अणुमें जितनी शक्तियाँ हैं उतनी ही और वैसी ही शक्तियाँ परिणमनयोग्यताएँ अन्य पुदगलाणुओंमें हैं । मुलतः पुद्गल-अणुद्रव्योंमें शक्तिभेद, योग्यताभेद या स्वभावभेद नहीं है। यह तो सम्भव है कि कुछ पुद्गलाण मूलतः स्निग्ध स्पर्शवाले हों और दूसरे मूलत: रूक्ष, कुछ . शीत और कुछ उष्ण, पर उनके ये गुण भी नियत नहीं है, रूक्षगुणवाला भी अणु स्निग्धगुणवाला बन सकता है तथा स्निग्धगुणवाला भी रूक्ष, शीत भी उष्ण वन उकता है उष्ण भी शीत । तात्पर्य यह कि पुद्गलाणुओम ऐसा कोई जातिभेद नहीं है जिससे किसी भी पुद्गलाणुका पुद्गलसम्बन्धी कोई परिणमन न हो सकता हो । पुद्गलद्रव्यके जितने भी परिणभन हो सकते हैं उन सबकी योग्यता और शक्ति प्रत्येक पुद्गलाणुमें स्वभावतः है। यही द्रव्यशक्ति कहलाती है। स्कन्ध अवस्थामें पर्यायशक्तियाँ विभिन्न हो सकती है। जैसे किसी अग्निस्कन्धमें सम्मिलित परमाणुका उष्णस्पर्श और तेजोरूप था, पर यदि वह अग्निस्कन्धसे जुदा हो जाय तो उसका शीतस्पर्श तथा कृष्णरूप हो सकता है, और यदि वह स्कन्ध ही भस्म बन जाय तो सभी परमाणुओंका रूप और स्पर्श आदि बदल सकते हैं। सभी जीवद्रव्योंकी मूल स्वभावशक्तियाँ एक जैसी हैं, ज्ञानादि अनन्तगुण और अनन्त चैतन्यपरिणमनकी शक्ति मलतः प्रत्येक जीवद्रव्यमें है। हाँ, अनादिकालीन अशुद्धताके कारण उनका विकास विभिन्न प्रकारसे होता है। चाहे भव्य हो या अभव्य दोनों ही प्रकारके प्रत्येक जीव एक-जैसी शक्तियोंक आधार हैं। शद्ध दशामें सभी एक जैसी शक्तियोंके स्वामी बन जाते हैं और प्रतिसमय अखण्ड शुद्ध परिणमनमें लीन रहते हैं। संसारी जीवोंमें भी मूलतः सभी शक्तियाँ हैं। इतना विशेष है कि अभव्यजीवोंमें केवल ज्ञानादि शक्तियोंके आविर्भावकी शक्ति नहीं मानी जाती। उपयुक्त विवेचनसे एक बात निविादरूपसे स्पष्ट हो जाती है कि चाहे द्रव्य चेतन हो या अचेतन, प्रत्येक मूलतः अपनी अपनी चेतन-अचेतन शक्तियोंका धनी है उनमें कहीं कुछ भी न्यूनाधिकता नहीं है । अशुद्ध दशामें अन्य पर्यायशक्तियाँ भी उत्पन्न होती है और विलीन होती रहती हैं। परिणमनके नियतत्वकी सीमा---उपर्युक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि द्रव्योंमें परिणमन होनेपर भी कोई भी द्रव्य सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तररूपमें परिणमन नहीं कर सकता। अपनी धारामें सदा उसका परिणमन होता रहता है। द्रव्यगत मल स्वभावकी अपेक्षा प्रत्येक द्रव्यके अपने परिणमन नियत हैं। किसी भी पुद्गलाणुके. वे सभी पुद्गलसम्बन्धी परिणमन यथासमय हो सकते हैं और . किसी भी जीवके जीवसम्बन्धी अनन्त परिणमन। यह तो सम्भव है कि कुछ पर्यायशक्तियोंसे सीधा For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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