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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना साधनोंकी सत्ता है अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टिसे जो अत्यधिक अनधिकार चेष्टा कर पर द्रव्योंको हस्तगत करनेके कारण मिथ्यादष्टि और बंधवान् है वे उस सत्ताका उपयोग दुसरी आत्माओंको कुचलनेमें करना चाहते हैं, और चाहते हैं कि संसारके अधिकसे अधिक पदार्थोंपर उनका अधिकार हो और इसी लिप्साके कारण वे संघर्ष हिंसा अशान्ति ईर्षा युद्ध जैसी तामस भावनाओंका सृजन कर विश्वको कलुषित कर रहे हैं। धन्य है, इस भारतको जो उसने इस बीसवीं सदीमें भी हिंसा बर्बरता के इस दानवयुगमें भी उसी आध्यात्मिक मानवताका संदेश देने के लिए गान्धी जैसे सन्तको उत्पन्न किया। पर हाय अभागे भारत, तेरे ही एक कपूतने, कपूतने नहीं, उस सर्वकषा संस्कृतिने जिसमें जातिगत उच्चत्व आदि कुभाव पुष्ट होते रहे हैं और जिसके नाम पर करोड़ों धर्मजीवी लोगोंकी आजीविका चलती है, उस सन्तके शरीरको गोलीका निशाना बनाया। गान्धीकी हत्या व्यक्तिकी हत्या नहीं है यह तो उस अहिंसक सर्वसमा संस्कृतिके हृदयपर उस दानवी, साम्प्रदायिक, हिन्दूकी ओटमें हिंसक विद्वेषिणी सर्वकषा संस्कृतिका प्रहार है । अत: मानवजातिके विकास और समुत्थानके लिए हमें संस्कृति विषयक सम्यग्दर्शन प्राप्त करना ही होगा और सवसमा आध्यात्मिक अहिंसक संस्कृति के द्वारा आत्मस्वरूप और आत्माधिकारका सम्यग्ज्ञान लाभ करके उसे जीवनमें उतारना होगा तभी हम बन्धनमुक्त हो सकेंगे, स्वयं स्वतन्त्र रह सकेंगे और दूसरोंको स्वतन्त्र रहनेकी उच्चभमिका तैयार कर सकेंगे। सारांश यह कि पतनका, चाहे वह सामाजिक हो राष्ट्रीय हो या वैयक्तिक-मूल कारण मिथ्यादर्शन अर्थात् दृष्टिका मिथ्यापन-स्वरूपविभ्रम ही है। दृष्टिमिथ्यात्वके कारण ज्ञान मिथ्या बनता है और फिर समस्त क्रियाएँ और आचरण मिथ्या हो जाते हैं। उत्थानका क्रम भी दष्टिके सम्यक्त्व अर्थात् सम्यग्दर्शनसे प्रारम्भ होता है। सम्यग्दर्शन होते ही ज्ञानकी गति सम्यक् हो जाती है और समस्त प्रवृत्तियाँ सम्यकत्वको प्राप्त हो जाती है। इसप्रकार बन्धनका कारण मिथ्यात्व और मुक्तिका कारण सम्यक्त्व होता है। अध्यात्म और नियतिवाद का सम्यग्दर्शनपदार्थस्थिति-''नाऽसतो वियते भावो नाऽभावो विद्यते सत:'-जगतमें जो सत् है उसका सर्वथा विनाश नहीं हो सकता और सर्वथा नए किसी असत्का सद्रूपमें उत्पाद नहीं हो सकता। जितने मौलिक द्रव्य इस जगतमें अनादिसे विद्यमान हैं वे अपनी अवस्थाओंमें परिवर्तित होते रहते हैं। अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल अणु, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाश और असंख्य कालाणु इनसे यह लोक व्याप्त है । ये छह जातिके द्रव्य मौलिक है, इनमें से न तो एक भी द्रव्य कम हो सकता है और न कोई नया उत्पन्न होकर इनकी संख्यामें वृद्धि ही कर सकता है। कोई भी द्रव्य अन्यद्रव्यरूपमें परिणमन नहीं कर सकता । जीव जीव ही रहेगा पुद्गल नहीं हो सकता । जिस तरह विजातीय द्रव्यरूपमें किसी भी द्रव्यका परिणमन नहीं होता उसी तरह एक जीव दूसरे सजातीय जीवद्रव्यरूप या एक पुद्गल दूसरें सजातीय पुद्गलद्रव्यरूपमें परिणमन भी नहीं कर सकता। प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायों-अवस्थाओंकी धारामें प्रवाहित है । वह किसी भी विजातीय या सजातीय द्रव्यान्तरकी धारामें नहीं मिल सकता। यह सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तरमें असंक्रान्ति ही प्रत्येक द्रव्यकी मौलिकता है। इन द्रव्योंमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्योंका परिणमन सदा शुद्ध ही रहना है, इनमें विकार नहीं होता, एक जैसा परिणमन प्रतिसमय होता रहता है। जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योम शद्धपरिणमन भी होता है तथा अशुद्ध परिणमन भी। इन दो द्रव्योंमें क्रियाशक्ति भी है जिससे इनमें हलन-चलन, आना-जाना आदि क्रियाएँ होती है। शेष द्रव्य निष्क्रिय है, वे जहाँ है वहीं रहते हैं। आकाश सर्वव्यापी है। धर्म और अधर्म लोकाकाशके बराबर है। पदगल और काल अणरूप है। जीव असंख्यातप्रदेशी है और अपने शरीरप्रमाण विविध आकारोंमें मिलता है। एक पुद्गलद्रव्य ही ऐसा है जो सजातीय अन्य पुद्गलद्रव्योंसे मिलकर स्कन्ध बन जाता है और कभी कभी इनमें इतना रासायनिक मिश्रण हो जाता है कि उसके अणुओंकी पथक् सत्ताका भान करना भी कठिन होता है। तात्पर्य यह कि जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्यमें अशुद्ध परिणमन होता है और वह एक दूसरे For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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