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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९] प्रथम अध्याय ३४५ ___मति ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है । श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम होने पर मतिज्ञानके द्वारा जाने हुए पदार्थों को विशेषरूपसे जानना श्रुतज्ञान है । इन्द्रिय और मन की सहायताके विना रूपी पदार्थों का जो स्पष्ट ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है । नीचे अधिक और ऊपर अल्प विषय को जानने के कारण इसको अवधि कहते हैं। देव अवधिज्ञानसे नीचे सातवें नरक पर्यन्त और ऊपर अपने विमान की ध्वजा पर्यन्त देखते हैं। अथवा विषय नियत होने के कारण इसको अवधि कहते हैं । अवधिज्ञान रूपी पदार्थ को ही जानता है। दूसरेके मन में स्थित पदार्थको (मन की बात को) जानने वाले ज्ञानको मनःपर्यय कहते हैं। मनःपर्यय ज्ञानमें मनको सहायक होने के कारण मतिज्ञानका प्रसङ्ग नहीं हो सकता क्योंकि मन निमित्तमात्र होता है जैसे आकाश में चन्द्रमा को देखो'यहाँ आकाश केवल निमित्त है अतः मन मनःपर्यय ज्ञान का कारण नहीं है। जिसके लिए मुनिजन बाह्य और अभ्यन्तर तप करते हैं उसे केवल ज्ञान कहते हैं । सम्पूर्ण द्रव्यों और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों को युगपत् जानने वाले असहाय ( दूसरे की अपेक्षा रहित ) ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। केवल ज्ञान की प्राप्ति सबसे अन्तमें होती है अतः इसका ग्रहण अन्तमें किया है। केवलज्ञानके समीपमें मनःपर्यय का ग्रहण किया है क्योंकि दोनों का अधिकरण एक ही है। दोनों यथाख्यातचारित्रवाले के होते हैं। केवलज्ञानसे अवधिज्ञान को दूर रखाहै क्योंकि वह केवलज्ञानसे विप्रकृष्ट ( दूर ) है। प्रत्यक्षज्ञानोंके पहिले परोक्षज्ञान मति और श्रुति को रखा है क्योंकि दोनों की प्राप्ति सरल है । सब ग्राणी दोनों ज्ञानों का अनुभव करते हैं । मति और श्रुतज्ञान की पद्धति श्रुत परिचित और अनुभूत है। वचन से सुनकर उसके एकबार स्वरूपसंवेदन को परिचित कहते हैं, तथा बार बार भावना को अनुभूत कहते हैं। ज्ञान की प्रमाणता तत्प्रमाणे ॥ १० ॥ ऊपर कहे हुये मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँचों ही ज्ञान प्रमाण हैं। अन्य सन्निकर्ष या इन्द्रिय आदि प्रमाण नहीं हो सकते । इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध को सन्निकर्ष कहते हैं। यदि सन्निकर्ष प्रमाण हो तो सूक्ष्म ( परमाणु आदि ) व्यवहित ( राम, रावण आदि) और विप्रकृष्ट ( मेरु आदि) अर्थों का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि इन्द्रियों के साथ इन पदार्थोंका सन्निकर्ष संभव नहीं है। और उक्त पदार्थों का प्रत्यक्ष न होनेसे कोई सर्वज्ञ भी नहीं हो सकेगा। अतः सन्निकर्ष को प्रमाण मानने वालों (नैयायिक) के यहाँ सर्वज्ञाभाव हो जायगा। दूसरी बात यह भी है कि चक्षु और मन अप्राप्यकारो ( पदार्थसे सम्बन्ध किए बिना ही जानने वाले ) हैं । अतः सब इन्द्रियों के द्वारा सन्निकर्ष न होनेसे सन्निकर्षको प्रमाण माननेमें अव्याप्ति दोष भी आता है। उक्त कारणोंसे इन्द्रिय भी प्रमाण नहीं हो सकती। चक्षु आदि इन्द्रियों का विषय अल्प है और ज्ञेय अनन्त है। प्रश्न-(नैयायिक ) जैन ज्ञानको प्रमाण मानते हैं अतः उनके यहाँ प्रमाणका फल नहीं बनेगा क्योंकि अर्थाधिगम (ज्ञान) को ही फल कहते हैं। पर जब वह ज्ञान प्रमाण हो गया तो फल क्या होगा ? प्रमाण तो फलवाला अवश्य होता है । सन्निकर्ष या इन्द्रिय को प्रमाण मानने में तो अर्थाधिगम (ज्ञान) प्रमाणका फल बन जाता है। ४४ For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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