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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४४ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [१९ उत्तर-मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानों में दर्शनमोहनीयके उदय आदिकी अपेक्षासे भावोंका वर्णन किया गया है। और सासादनगुणस्थानमें दर्शनमोहनायके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम न होनेसे पारिणामिक भावका सद्भाव आगममें कहा है। , . मिश्रगुणस्थानमें क्षायोपशमिक भाव होता है। प्रश्न-सर्वघाती प्रकृतियोंके उदय न होनेपर और देशघाती प्रकृतियोंके उदय होनेपर क्षायोपशमिक भाव होता है। लेकिन सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति देशघाती नहीं है क्योंकि आगममें उसको सर्वघाती बतलाया है । अतः तृतीय गुणस्थानमें क्षायोपशमिक भाव कैसे संभव है ? उत्तर-उपचारसे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति भी देशघाती है। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति एकदेशसे सम्यक्त्वका घात करती है । वह मिथ्यात्वप्रकृतिके समान सम्यक्त्वका सर्वघात नहीं करती। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके उदय होनेपर सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वोंमें चलाचलरूप परिणाम होते हैं। अतः सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति उपचारसे देशघाती है और देशघाती होनेसे तीसरे गुणस्थानमें क्षायोपशमिकभावका सद्भाव युक्तिसंगत है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं। असंयत औदायिक भावसे होता है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में क्षायोपमिक भाव होता है। चारों उपशमक गुणस्थानों में औपशमिक भाव होता है। चारों क्षपक, सयोगकेवली और अयोगेकेवली गुणस्थानों में क्षाधिक भाव होता है। अल्पबहुत्वका वर्णन भी सामान्य और विशेषके भेदसे किया गया है। सामान्यसे अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसांपराय इन तीन उपशम गुणस्थानों में उपशमक सब से कम हैं। आठ समयों में क्रमसे प्रवेश करने पर इनकी जघन्य संख्या १, २, ३ इत्यादि है और उत्कृष्ट संख्या १६, २४, ३०, ३६, ४२, ४८, ५४, ५४ है। अपने २ गुणस्थान कालमें इनकी संख्या बराबर है। उपशान्तकषाय गुणस्थानवी जीवों की संख्या संख्याके वर्णनमें बतलाई जा चुकी है। उपशमक जीवों की संख्या सबसे कम होनेके कारण पहिले इनका वर्णन किया गया है। तीन उपशमकों को कषाय सहित होनेसे उपशान्त कपायसे पृथक् निर्देश किया गया है। तीन क्षपक गुणस्थानवर्ती जीव उपशमकोंसे संख्यातगुने हैं। सूक्ष्मसाम्परायसंयत विशेष अधिक हैं। क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायमें उपशमक और क्षपक दोनों का ग्रहण किया गया है। क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीवों की संख्या संख्याके वर्णनमें बतलाई जा चुकी है। सयोगकेवली और अयोगकेवली जीवों की संख्या प्रवेश की अपेक्षा बराबर है। अपने काल में सर्वसयोगकेवलियोंकी संख्या ८९८५०२ है । अप्रमत्तसंयत संख्यातगुने हैं। प्रमत्तसंयत संख्यातगुने हैं । संयतासंयत संख्यातगुने हैं। संयतासंयतों में अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि संयतों की तरह इनमें गुणस्थान का भेद नहीं है । सासादन सम्यग्दृष्टि संख्यातगुने ५२०००००० हैं । सम्यग्मिध्यादृष्टि संख्यातगुने १०४००००००० हैं। असंयतसम्यग्दष्टि संख्यातगुने ७००००००००० हैं । मिथ्यादृष्टि अनन्तगुने हैं। ___ इस प्रकार सत् संख्या आदि का गुणस्थानों में सामान्य की अपेक्षासे वर्णन किया गया है। विशेष की अपेक्षासे वर्णन विस्तारभय से नहीं किया है। सम्यग्ज्ञान का वर्णनमतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥ ९॥ मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच सम्यग्ज्ञान हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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