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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना करनेकी योग्यता उसीमें है। यह भाव प्रत्येक जर्मनयुवकमें उत्पन्न किया गया। उसका परिणाम द्वितीय महाय द्धके रूपमें मानवजातिको भोगना पड़ा और ऐसी ही कुसंस्कृतियोंके प्रचारसे तीसरे महायुद्धकी सामग्री इकट्ठी की जा रही है। भारतवर्ष में सहस्रों वर्षसे जातिगत उच्चता नीचता, छआछत, दासीदासप्रथा और स्त्रीको पददलित करनेकी संस्कृतिका प्रचार धर्मके टेकेदारोंने किया और भारतीय प्रजाके बहुभागको अस्पृश्य घोषित किया, स्त्रियोंको मात्र भोगविलासकी सामग्री बनाकर उन्हें पशुसे भी बदतर अवस्थामें पहुँचा दिया। रामायण जैसे धर्म - ग्रन्थमें "ढोल गवार शद्र पशु नारी ये सब ताड़नके अधिकारी।" जैसी व्यवस्थाएं दी गयी हैं और मानवजातिमें अनेक कल्पित भेदोंकी सृष्टि करके एक वर्गके शोषणको वर्गविशेष के शासन और बिलासको प्रोत्साहन दिया, उसे पुण्यका फल बताया और उसके उच्छिष्ट कणोंसे अपनी जीविका चलाई। नारी और शूद्र पशुके समान करार दिये गये और उन्हें ढोलकी तरह ताड़नाका पात्र बनाया। इस धर्मव्यवस्था को आज संस्कृतिके नामसे पुकारा जाता है । जिस पुरोहितवर्गकी धर्मसे आजीविका चलती है उनकी पूरी सेना इस संस्कृतिकी प्रचारिका है । पशुओंको ब्रह्माने यज्ञके लिए उत्पन्न किया है अत: ब्रह्माजीके नियमके अनुसार उन्हें यज्ञमें झोंको। गौकी रक्षाके वहाने मुसलमानोंको गालियां दी जाती हैं पर इन याज्ञिकोंकी यज्ञशाला गोमेध यज्ञ धर्म के नामपर बराबर होते थे। अतिथि सत्कारके लिए इन्हें गायकी बछियाका भर्ता बनाने में कोई संकोच नहीं था। कारण स्पष्ट था-'ब्राह्मण ब्रह्माका मुख है, धर्मशास्त्रकी रचना उसके हाथमें थी ।' अपने वर्ग के हितकेलिए वे जो चाहें लिख सकते थे। उनने तो यहांतक लिखनेका साहस किया है कि-"ब्रह्माजीने सष्टिको उत्पन्न करके ब्राह्मणोंको सौंप दी थी अर्थात् ब्राह्मण इस सारी सृष्टिके ब्रह्माजीसे नियुक्त स्वामी है। ब्राह्मणोंकी असावधानीसे ही दूसरे लोग जगत्के पदार्थोके स्वामी बने हुए हैं। यदि ब्राह्मण किसीको मारकर भी उसकी संपत्ति छीन लेता है तो वह अपनी ही वस्तु वापिस लेता है। उसकी वह लुट सत्कार्य है। वह उस व्यक्तिका उद्धार करता है।" इन ब्रह्ममुखोंने ऐसी ही स्वार्थपोषण करनेवाली व्यवस्थाएँ प्रचारित की, जिससे दूसरे लोग ब्राह्मणके प्रभुत्वको न भूलें । गर्भसे लेकर मरणतक सैकड़ों संस्कार इनकी आजीविकाकेलिए कायम हए । मरणके बाद श्राद्ध, वार्षिक वैवार्षिक आदि श्राद्ध इनकी जीविकाके आधार बने। प्राणियोंके नैसर्गिक अधिकारोंको अपने आधीन बनाने के आधारपर संस्कृतिके नामसे प्रचार होता रहा है। ऐसी दशामें इस संस्कृतिका सम्यग्दर्शन हुए बिना जगत्में शान्ति और व्यक्तिकी मुक्ति कैसे हो सकती है? वर्गविशेषकी प्रभताके लिए किया जानेवाल यह विषैला प्रचार ही मानवजातिके पतन और भारतकी पराधीनताका कारण हुआ है । आज भारतमें स्वातन्त्र्योदय होनेपर भी वही जहरीली धारा 'संस्कृतिरक्षा' के नामपर युवकोंके कोमल मस्तिष्कोंमें प्रवाहित करनेका पूरा प्रयत्न वही वर्ग कर रहा है। हिंदीकी रक्षाके पीछे वही भाव है । पुराने समयमें इस वर्गने संस्कृतको महत्ता दी थी और संस्कृतके उच्चारणको पुण्य और दूसरी जनभाषा-अपभ्रंशके उच्चारणको पाप बताया था। नाटकोंमें स्त्री और शूद्रोंसे अपभ्नश या प्राकृत भाषाका बुलवाया जाना उसी भाषाधारित उच्चनीच भावका प्रतीक है। आज संस्कृतनिष्ठ हिन्दीका समर्थन करनेवालोंका बड़ा भाग जनभाषाकी अवहेलनाके भावसे ओतप्रोत है। अतः जबतक जगत्के प्रत्येक द्रव्यकी अधिकारसीमाका वास्तविक यथार्थदर्शन न होगा तबतक यह धाँधली चलती ही रहेगी। धर्मरक्षा, संस्कृतिरक्षा, गोरक्षा, हिन्दीरक्षा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, धर्म संघ आदि इसके आवरण है। जैन संस्कृतिने आत्माके अधिकार और स्वरूपकी ओर ही सर्वप्रथम ध्यान दिलाया और कहा कि इसका सम्यग्दर्शन हुए बिना बन्धनमोक्ष नहीं हो सकता। उसकी स्पष्ट घोषणा है-- (१) प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है उसका मात्र अपने विचार और अपनी क्रियाओंपर अधिकार है, वह अपने ही गुण पर्यायका स्वामी है। अपने सुधार-बिगाड़का स्वयं जिम्मेदार है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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