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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वनिरूपण और उनके फलोंका भोक्ता है। उसमें स्वयं परिणमन होता है। उपादान रूपसे यही आत्मा राग टेप मोह अज्ञान क्रोध आदि विकार परिणामोंको धारण करता है और उसके फलोंको भोगता है। संसार दशामें कर्म के अनुसार नानाविध योनियोंमें शरीरोंका धारण करता है पर मुक्त होते ही स्वभावतः उर्ध्वगमन करता है और लोकाग्रभागमें सिद्धलोकमें स्वरूपप्रतिष्टित हो जाता है। ___ अत: महावीरनं बन्ध मोक्ष और उसके कारण भूत तत्त्वोंके सिवाय इस आत्मा का भी ज्ञान आवश्यक बताया जिमे शुद्ध होना है तथा जो अशुद्ध हो रहा है। आत्माकी अशुद्ध दशा स्वरूपप्रच्युतिरूप है और यह स्वस्वरूपको भूलकर परपदार्थोमें ममकार और अहंकार करने के कारण हुई है। अत: इस अशुद्ध दशाका अन्त भी स्वरूपज्ञानसे ही हो सकता है। जब इस आत्माको यह तत्त्वज्ञान होता है कि-- "मेरा स्वरूप तो अनन्त चैतन्यमय बीतराग निर्मोह निष्कषाय शान्त निश्चल अप्रमत्त ज्ञानरूप है । इस स्वरूपको भूलकर पर पदार्थोंमें ममकार तथा शरीरको अपना मानने के कारण राग द्वेष मोह कषाय प्रमाद मिथ्यात्व आदि विकाररूप मेरा परिण मन हो गया है और इन कपायोंकी ज्वालामें मेरा रूप समल और चंचल हो रहा है। यदि पर पदार्थोंसे ममकार और रागादिभावोंसे अहंकार हट जाय तथा आत्मपरविवेक हो जाय तो यह अशुद्ध दशा में वासनाएँ अपने आप क्षीण हो जायगी ॥" तो यह विकारों को क्षीण करता हुआ निििवकार चैतन्यरूप होता जाता है। इसी शुद्धिकरण को मोक्ष कहते हैं । यह मोक्ष जबतक शुद्ध आत्मस्वरूपका बोध न हो तबतक कैसे हो सकता है ? बुद्धके तत्त्वज्ञानका प्रारम्भ दुःखसे होता है और उसकी समाप्ति दुःखनिवृत्ति में होती है । पर महावीर बन्ध और भोक्षके आधार भत आत्माको ही मलतः तत्त्वज्ञानका आधार बनाते हैं। बद्धको आत्मा शब्दम हो चिढ़ है। वे समझते हैं कि आत्मा अर्थात उपनिषद्वादियोंका नित्य आत्मा । और नित्य आत्मामें स्नेह होने के कारण स्वबुद्धि और दूसरे पदार्थों में परवृद्धि होने लगती है। स्व-पर विभागसे रागद्वेष और राग द्वेषसे यह संसार बन जाता है। अतः सर्वानर्थभूल यह आत्मदृष्टि है । पर वे इस ओर ध्यान नहीं देते कि 'आत्मा' की नित्यता या अनित्यता राग और विरागका कारण नहीं है। राग और विराग तो स्वरूपानवबोध और स्वरूपत्रोध से होते हैं। रागका कारण पर पदार्थों में ममकार करना है। जब इस आत्माको समझाया जायगा कि "मुर्ख, तेरा स्वरूप तो निर्विकार अखण्ड चैतन्य है। तेरा इन स्त्री पुत्र शरीरादि में ममत्व करना विभाव है स्वभाव नहीं ।" तब यह सहज ही अपने निर्विकार सहज स्वभावकी ओर दृष्टि डालेगा और इसी विवेक दृष्टि या सम्यग्दर्शनये पर पदार्थोंसे रागद्वेष हटाकर स्वरूप में लीन होने लगेगा। इमीके कारण आम्रव रुकते हैं और चित्त निराम्रव होता है। __ आत्मदृष्टि ही बन्धोच्छेदिका-विश्वका प्रत्येक द्रव्य अपने गुण और पर्यायोंका स्वामी है। जिम तरह अनन्त चेतन अपना पृथक् अस्तित्व रखते हैं उसी तरह अनन्त पुदगल परमाणु एक धर्म द्रव्य (गति सहायक) एक अधर्म द्रव्य (स्थिति सहकारी) एक आकाशद्रव्य (क्षेत्र) असंख्य कालाणु अपना पृथक् अस्तित्व रखते हैं । प्रत्येक द्रव्य प्रति समय परिवर्तित होता है । परिवर्तनका अर्थ विलक्षण परिणमन ही नहीं होता। धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाश और कालद्रव्य इनका विभाव परिणमन नहीं होता, ये सदा सदृश परिणमन ही करत है। प्रतिक्षण परिवर्तन होनेपर भी एक जैसे बने रहते हैं। इनका शुद्ध परिण मन ही रहता है। रूप रस गन्ध और स्पर्श वाले पुद्गल परमाणु प्रतिक्षण शुद्ध परिण मन भी करते हैं। इनका अशुद्ध परिण मन है स्कन्ध बनना। जिस समय ये शुद्ध परमाणु की दशामें रहते हैं उस समय इनका शुद्ध परिणमन होता है और जब ये दो या अधिक मिलकर स्कन्ध बन जाते हैं तब अशुद्ध परिणमन होता है । जीव जबतक संसार दशाम है और अनेकविध सूक्ष्म कर्मशरीरमे बद्ध होने के कारण अनेक स्थूल शरीरोंको धारण करता है तबतक इसका विभाव या विकारी परिणमन है। जब स्वरूप-बोधके द्वारा पर पदार्थोंसे मोह हटाकर स्वरूपमात्रमग्न होता है तब स्थूल शरीर के साथ ही मुक्ष्म कर्मशरीरका भी उच्छेद होनेपर निर्विकार शुद्ध चैतन्य मात्र For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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