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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थवृत्ति- प्रस्तावना फलदायी अनुभागशक्ति पड़ जायगी। इस तरह जीबनके अन्तमें कर्मोका बन्ध निर्जरा उत्कर्षण अपकपण आदि होते होते जो रोकड़ बाकी रहती है वही सूक्ष्म कर्मशरीरके रूपमं परलोक तक जाती है । जैसे तेज अग्निपर उबलती हुई बटलोईमें दाल चावल शाक जो भी डालिए उसका ऊपर नीचे जाकर उफान लेकर नीचे बैठकर अन्तमें एक पाक बन जाता है, उसी तरह प्रतिक्षण बंधनेवाले अच्छे या बुरे कर्मों में शुभभावाने शुभकर्मोमें रसप्रकर्ष और स्थितिवृद्धि होकर अशुभकर्मोमें रसापकर्ष और स्थितिहानि होकर अनेक प्रकारके ऊंचनीच परिवर्तन होते होते अन्तमें एक जातिका पाक्योग्य स्कन्ध वन जाता है, जिसके प्रमोदयसे रागादि सुखदुःखादि भाव उत्पन्न होते हैं। अथवा, जैसे उदर में जाकर आहारका मल मूत्र स्वेद आदि रूपसे कुछ भाग बाहर निकल जाता है कुछ वहीं हजम होकर रक्तादि धातु रूपसे परिणत होता है और आगे जाकर वीर्यादिरूप बन जाता है, बीचमें चूरन चटनी आदिके योगमे लघुपाक दीर्घपाक आदि अवस्थाएँ भी होती हैं पर अन्तमें होनेवाले परिपाकके अनुसार ही भोजनमें सुपाकी दुष्पाकी आदि व्यवहार होता है, उमी तरह कर्मका भी प्रतिसमय होनेवाले शुभ अशुभ विचारों के अनुसार तीव्र मन्द मध्यम मृदु मदुतर आदि रूपसे परिवर्तन बराबर होता रहता है। कुछ कर्म संस्कार ऐसे हैं जिनमें परिवर्तन नहीं होता और उनका फल भोगना ही पड़ता है, पर ऐ से कर्म बहुत कम हैं जिनमें किसी जातिका परिवर्तन न हो। अधिकांश कर्मोमें अच्छे बुरे विचारों के अनुसार उत्कर्षण ( स्थिति और अनुभागकी वृद्धि ) अपकर्षण ( स्थिनि और अन भागकी हानि ) संक्रमण (एकका दूसरे रूपमें परिवर्तन) उदीरणा (नियत समयसे पहिले उदय में ले आना) आदि होते रहते है और अन्त में शेष कर्मबन्धका एक नियत परिपाकत्रम बनता है। उसमें भी प्रतिसमय परिवर्तनादि होते हैं । तात्पर्य यह कि यह आत्मा अपने भले बुरे विचारों और आचागेंगे स्वयं बन्धनमें पड़ता है और ऐसे संस्कारोंको अपने में डाल लेता है जिनसे छुटकारा पाना सहज नहीं होता। जैन सिद्धान्तने उन विचारोंके प्रतिनिधिभूत कर्मद्रव्यका इस आत्मासे बंध माना है जिससे उस कर्मद्रव्यपर भार पड़ते ही या उसका उदय आते ही वे भाव आत्मामें उदित होते हैं। जगत् भौतिक है । वह पुद्गल और आत्मा दोनोंसे प्रभावित होता है। जब कर्मका एक भौतिक पिण्ड, जो विशिष्ट शक्तिका केन्द्र है, आत्मासे सम्बद्ध हो गया तब उसकी सूक्ष्म पर तीव्र शक्तिके अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते है। बाह्य पदार्थोंके समवधानके अनुसार कर्मोका यथासंभव प्रदेशोदय या फलोदय रूपसे परिपाक होता रहता है। उदयकालमें होनेवाले तीन मन्द मध्यम शुभ अशुभ भावोंके अनुसार आगे उदय आनेवाले कर्मोके रमदानमै अन्तर पड़ जाता है। तात्पर्य यह कि बहुत कुछ काँका फल देना या अन्य रूपमें देना या न देना हमारे पुरुषार्थ के ऊपर निर्भर है। इस तरह जैन दर्शनमें यह आत्मा अनादिसे अशुद्ध माना गया है और वह प्रयोगमे शुद्ध हो सकता ई. । शुद्ध होनेके बाद फिर कोई कारण अशुद्ध होने का नहीं रह जाता । आत्माके प्रदेशोंमें संकोच विस्तार भी कर्मके निमित्तसे ही होता है। अतः कर्म निमित्त के हट जानेपर आत्मा अपने अन्तिम आकारमें न्द्र जाता है और ऊर्ध्व लोकमें लोकाग्रभागमें स्थिर हो अपने अनन्त चैतन्यमें प्रतिष्ठित हो जाता है। इस आत्माका स्वरूप उपयोग है। आत्माकी चैतन्यशक्तिको उपयोग कहते हैं। यह चिति दाकिन वाह्य अभ्यन्तर कारणोंसे यथासंभव ज्ञानाकार पर्यायको और दर्शनाकार पर्यायको धारण करती है । जिस समय यह चैतन्यशक्ति ज्ञेयको जानती है उस समय साकार होकर ज्ञान कहलाती है तथा जिस समय मात्र चैतन्याकार रहकर निराकार रहती है तब दर्शन कहलाती है। ज्ञान और दर्शन कमसे होनेवाली पर्या है। निरावरण दशामें चैतन्य अपने शुद्ध चैतन्य रूपमें लीन रहता है। इस अनिर्वचनीय स्वरूपमात्र प्रतिष्टित आत्ममात्र दशाको ही निर्वाण कहते हैं। निर्वाण अर्थात् वासनाओंका निर्वाण । स्वरूपसे अमूर्तिक होकर भी यह आत्मा अनादि कर्मबन्धनबद्ध होनेके कारण मूर्तिक हो रहा है और कर्मबन्धन हटते ही फिर अपनी शुद्ध अमतिक दशामें पहुँच जाता है। यह आत्मा अपनी शुभ अशुभ परिणनियोंका कर्ता है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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