________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१८
तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना
विद्यमान है पर मन यदि ठीक नहीं है तो विचार नहीं किये जा सकते । पक्षाघात यदि हो जाय तो दागर देखने में वैसा ही मालूम होता है पर सब शून्य । निष्कर्ष यह कि अशुद्ध आत्माकी दशा और इसका सारा विकास पुद्गलके अधीन हो रहा है । जीवननिमित्त भी खान पान श्वासोच्छ्वास आदि सभी साधन भौतिकी अपेक्षित होते हैं । इस समय यह जीव जो भी विचार करता है देखता है जानता है, या त्रिया करता है उसका एक जातिका संस्कार आत्मापर पड़ता है और उस संस्कारकी प्रतीक एक भौतिक रेखा मस्तिष्कम विच जाती है। दुसरे तीसरे चौथे जो भी विचार या क्रियाएँ होती हैं उन सबके संस्कारोंको यह आत्मा धारण करना है और उनकी प्रतीक टेढ़ी सीधी गहरी उथली छोटी बड़ी नाना प्रकारकी रेखाएँ भस्तिष्कमें भरे हुए मबन्धन जैसे भौतिक पदार्थ पर खिचती चली जाती हैं । जो रेखा जितनी गहरी होगी वह उतने ही अधिक दिनातक उस विचार या क्रियाकी स्मति करा देती है । तात्पर्य यह कि आजका ज्ञान शक्ति और सुख आदि सभी पर्यायशक्तियां हैं जो इस शरीर-पर्याय तक ही रहती हैं ।
व्यवहारनयसे जीवको मूर्तिक मानने का अर्थ यही है कि अनादिसे यह जीव शरीरसम्बद्ध ही मिलना आया है । स्थल शरीर छोड़नपर भी सूक्ष्म कर्म शरार सदा इसके साथ रहता है । इसी सुक्ष्म कर्मशरीरके नागको ही मुक्ति कहते हैं। जीव पुद्गल दो द्रव्य ही ऐसे हैं जिनमें क्रिया होती है तथा विभाब या अशुद्ध परिणमन होता है । पुद्गलका अशुद्ध परिणमन पुद्गल और जीव दोनों के निमित्त से होता है जबकि जीवका अमुद्ध परिणमन यदि होगा तो पुद्गलके ही निमित्तसे। शुद्ध जीवमें अशुद्ध परिणमन न तो जीवके निमित्त से हो सकता है और न पुद्गलके निमित्तसे । अशुद्ध जीवके अशुद्ध परिणमनकी धारामें पुद्गल या पुद्गलसम्बद्ध जीव निमित्त होता है । जैन सिद्धान्तने जीवको देहप्रमाण माना है । यह अनुभवसिद्ध भी है। शरीरके बाहर उस आत्माके अस्तित्व माननेका कोई खास प्रयोजन नहीं रह जाता और न यह तर्कगम्य ही है। जीवके ज्ञानदर्शन आदि गुण उसके शरीरमें ही उपलब्ध होते है शरीरके वाहर नहीं। छोटे बड़े शरीरके अनुसार असंख्यातप्रदेशी आत्मा संकोच-विकोच करता रहता है । चार्वाकका देहात्मवाद तो देहको ही आत्मा मानता है तथा देहकी परिस्थितिके साथ आत्माका भी विनाश आदि स्वीकार करता है। जैनका देहपरिमाण-आत्मवाद पद्गलदेह से आत्मद्रव्यकी अपनी स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। न तो देहकी उत्पत्तिसे आत्माकी उत्पत्ति होती है और न देहके विनाशसे आत्मविनाश । जब कर्मशरीरकी शृंखलासे यह आत्मा मुक्त हो जाता है तत्र अपनी गल चैतन्य दशामें अनन्तकाल तक स्थिर रहता है । प्रत्येक द्रव्यमें एक अगुरुलघु गुण होता है जिसके कारण उसमें प्रतिक्षण परिण मन होते रहने पर भी न तो उसमें गुरुत्व ही आता है और न लघुत्व ही। द्रव्य अपने स्वपमें सदा परिवर्तन करते रहते भी अपनी अखण्ड मौलिकताको भी नहीं खोता।
आजका विज्ञान भी हम बताता है कि जीव जो भी विचार करता है उसकी टेढ़ी सीधी उथली गहरी रेखाएँ मस्तिष्कमें भरे हए मक्खन जैसे श्वेत पदार्थमें खिचती जाती हैं और उन्हींके अनुसार स्मतितथा वासनाएं उदबद्ध होती है। जैन कर्म सिद्धान्त भी यही है कि-रागद्वेष प्रवृत्तिके कारण केवल संस्कार ही आत्मापर नहीं पड़ता कितु उस संस्कारको यथासमय उबुद्ध कराने वाले कर्मद्रव्यका संबंध भी होता जाता है। यह कर्मद्रव्य पुद्गल द्रव्यही है । मन वचन कायकी प्रत्येक क्रिया के अनुसार शुक्ल या कृष्ण कर्म पुद्गल आत्मासे सम्बन्धको प्राप्त हो जाते हैं। ये विशेष प्रकारके कर्म पद्गल बहुत कुछ तो स्थूल शरीरके भीतर ही पड़े रहते है जो मनोभावोंके अनुसार आत्माके सूक्ष्म कर्मशरीरमें शामिल होते जाते हैं, कुछ वाहिरसे भी आते हैं। जैसे तपे हए लोहेके गोलेको पानीसे भरे हए वर्तनमें छोड़िये तो वह गोला जलके भरे हुए बहतमे परमाणुओंको अपने भीतर सोख लेता है उसी तरह अपनी गरमी औरभापसे बाहिरके परमाणुओंको भी खींचता है। लोहेका गोला जब तक गरम रहता है पानीमें उथल पुथल पैदा करता रहता है, कुछ परमाणुओंको लेगा कुछ को निकालेगा कुछको भाप बनाएगा, एक अजीबसी परिस्थिति समस्त वातावरणमें उपस्थित कर देता है । उसी तरह जब यह आत्मा रागद्वेषादिसे उत्तप्त होता है तब शरीरमें एक अद्भुत हलनचलन उपस्थित करता है।
For Private And Personal Use Only