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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ तत्त्वनिरूपण भी हानि ही हो सकती है। रूपान्तर प्रत्येकका होता रहता है। यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। इस सिद्धानके अनुसार आत्मा एक स्वतंत्र सत् है तथा पुद्गल परमाणु स्वतंत्र सत् । अनादिसे यह आत्मा पुद्गलसे मावद्ध ही मिलता आया है। ___ अनादिबद्ध माननेका कारण--आज आत्मा स्थूल शरीर और सूक्ष्म कर्मशरीरसे बद्ध मिलता है । आज इसका ज्ञान और सुख यहां तक कि जीवन भी शरीराधीन है। शरीरमें विकार होनेसे ज्ञानतन्तुओंमें श्रीणता आते ही स्मृतिभ्रश आदि देखे ही जाते हैं। अत: आज संसारी आत्मा शरीरबद्ध होकर ही अपनी गतिविधि करता है । यदि आत्मा शुद्ध होता तो शरीरसम्बन्धका कोई हेतु ही नहीं था । शरीरसम्बन्ध या पुनर्जन्मके कारण है--राग, द्वेष,मोह, और कषायादिभाव । शुद्ध आत्मा में ये विभावभाव हो ही नहीं सकते। कि आज ये विभाव और उनका फल शरीरसम्बन्ध प्रत्यक्ष अनुभवमें आ रहा है अत: मानना होगा कि आजतक इनकी अशुद्ध परंपरा चली आई है। भारतीय दर्शनोंमें यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर विधिमुखसे नहीं दिया जा सकता। ब्रह्म में विद्याका कब उत्पन्न हुई ? प्रकृति और पुरुषका संयोग कब हआ? आत्मासे शरीरसम्बन्ध कब हुआ? इसका एकमात्र उत्तर है-अनादिसे । दूसरा प्रकार है कि-यदि ये शुद्ध होते तो इनका संयोगहो ही नहीं सकता ।। शुद्ध होने के बाद कोई ऐसा हेतु नहीं रह जाता जो प्रकृतिसंसर्ग या अविद्योत्पत्ति होने दे। उसी तरह आत्मा यदि शुद्ध हो जाता है तो कोई कारण उसके अशुद्ध होनेका या पुद्गलसंयोगका नहीं रह जाता। जब दो स्वतंत्र सत्ताक द्रव्य हैं तब उनका संयोग चाहे जितना भी पुराना क्यों न हो नष्ट किया जा सकता है और दोनोंको पृथक् पृथक किया जा सकता है। उदाहरणार्थ-खानिसे सर्वप्रथम निकाले गये सोनेमें कीट असंख्यकालमे लगी होगी पर प्रयोगरो चूंकि वह पृथक् की जाती है,अतः यह निश्चय किया जाता है कि सुवर्ण अपने गुद्धरूपमें इस प्रकार है तथा कीट इस प्रकार । सारांश यह कि जीव और पुद्गलका बंध अनादि है। चकि वह दो द्रव्योंका बन्ध है अतः स्वरूपबोध हो जानेपर वह पृथक किया जा सकता है । आज जीवका ज्ञान दर्शन सुख राग द्वेष आदि सभी भाव बहुत कुछ इस जीवनपर्याय के अधीन हैं । एक मनष्य जीवन भर अपने ज्ञानका उपयोग विज्ञान या धर्मके अध्ययन में लगाता है । जवानीमें उसके मस्तिष्कमें भौतिक उपादान अच्छे थे, प्रचुर मात्रामें थे, तो वे ज्ञानतन्तु चैतन्यको जगाए रखते थे। बुढ़ापा आने पर उसका मनिक शिथिल पड़ जाता है । विचारशक्ति लुप्त होने लगती है । स्मरण नहीं रहता । वही व्यक्ति अपनी. जवानी में लिखे गये लेखको बुढ़ापेमें पढ़ता है तो उसे स्वयं आश्चर्य होता है । वह विश्वास नहीं करता कि यह उमीने लिखा होगा। मस्तिष्ककी यदि कोई भौतिक ग्रन्थि बिगड़ जाती है तो मनुष्य पागल हो जाता है। दिमाग का यदि कोई पंच कस गया यादीला होगया तो उन्माद, सन्देह आदि अनेक प्रकारकी धाराएँ जीवनको ही बदल देती हैं। मुझे ए ऐसे योगीका प्रत्यक्ष अनुभव है जिसे शरीरकी नमोंका विशिष्ट ज्ञान था । वह मस्तिष्ककी एक किमी खास नसको दबाता था तो मनुष्यको हिंसा और क्रोधके भाव उत्पन्न हो जाते थे। दूसरे ही क्षण दूसरी नमके दबातेही अत्यन्त दया और करुणाके भाव होते थे और वह रोने लगता था । एक तीसरी नसके दबातेही लोभका तीव्र उदय होता था और यह इच्छा होती थी कि चोरी कर लें। एक नसके दबाते ही परमात्मभक्ति की ओर मनकी गति होने लगती थी। इन सबघटनाओंसे एक इस निश्चित परिणामपर तो पहुँच ही सकते हैं कि हमारी सारी शक्तियां जिनमें ज्ञान दर्शन सुख राग द्वेष कपाय आदि हैं,इस शरीर पर्यायके अधीन हैं। शरीरके नष्ट होते ही जीवन भरमें उपासित ज्ञान आदि पर्यायशक्तियां बहुत कुछ नष्ट हो जाती हैं । परलोक तक इनके कुछ सूक्ष्म संस्कार जाते हैं। ___ आज इस अशुद्ध आत्माकी दशा अर्धभौतिक जैसी हो रही है ! इन्द्रियां यदि न हों तो ज्ञानकी शक्ति बनी रहने पर भी ज्ञान नहीं हो सकता। आत्मामें सुननेकी और देखने की शक्ति मौजूद है पर यदि आंखें फूट जायं और कान फट जाय तो वह शक्ति रखी रह जायगी और देखना सुनना नहीं हो सकेगा। विचारशक्ति For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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