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४२ तत्त्वार्थसूत्र
[१.२१.२२. चाहिये जो वीतरागता का पोपक हो । लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिये यदि वह अन्य श्रत का अवलोकन करता है तो ऐसा करना अनुचित नहीं है फिर भी उस अभ्यास को परमार्थ कोटिका नहीं माना जा सकता है। उसमें भी जो कथा, नाटक और उपन्यास आदि राग को बढ़ाते हैं। जिनमें नारी को विलास और काम की मूर्ति रूप से उपस्थित करके नारीत्व का अपमान किया गया है। जिनके पढ़ने से मारकाट की शिक्षा मिलती है। मनुष्य मनुष्यता को भूलकर पशुता पर उतारू होने लगता है उनका वाचना, सुनना सर्वथा छोड़ देना चाहिये।
शंका--जब कि विविध दर्शन और धर्म के ग्रन्थ भी श्रुत कहलाते हैं तब फिर उनके पठन-पाठन का निषेध क्यों किया जाता है ? ___समाधान-मोक्ष मार्ग में प्रयोजक नहीं होने से ही उनके पठनपाठन का निषेध किया जाता है। वैसे ज्ञान को बढ़ाने के लिये
और सद्धर्म की सिद्धि के लिये उनका ज्ञान प्राप्त करना अनुचित नहीं है। इससे कौन धर्म समीचीन है और कौन असमीचीन इसका विवेक प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु स्वसमय का अभ्यास करने के बाद ही परसमय का अभ्यास करना चाहिये अन्यथा सत्पथ से च्युत होने का डर बना रहता है ।। २०॥
अवधिज्ञान के भेद और उनके स्वामी-- 'भवत्प्रययोऽवधिदेवनारकाणाम् ॥ २१ ॥
क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥ २२ ॥ (१) श्वेताम्बर ग्रन्थों में यह सूत्र यों है 'तत्र भवप्रत्ययो नारकदेवाणाम् । इस सूत्र के पहले 'द्विविधोऽवधिः' यह सूत्र और पाया जाता है। यह सर्वार्थसिद्धि में इसी सूत्र की उत्थानिका में निर्दिष्ट है।
(२) श्वेताम्वर ग्रन्थों में यह सूत्र यों है 'यथोक्तनिमिचः षडविकल्पः शेषाणाम् ।' भाष्यकार ने 'यथोक्तनिमित्त:' का अर्थ अवश्य ही क्षयोपशम निमित्त: किया है।