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________________ १.२०.] श्रुतज्ञानका स्वरूप और उसके भेद ३९ ___ शंका-मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है यह बात न होकर अधिकतर श्रुत ज्ञानपूर्वक भी श्रतज्ञान देखा जाता है, जैसे घट शब्द का सुनना तदन्तर घट ऐसा मानसिक ज्ञान का होना और फिर घट में पानी भरा जाता है। ऐसा घटकार्यका ज्ञान होना ये क्रमसे होनेवाले तीन ज्ञान हैं। इनमें से प्रथम मतिज्ञान और अन्तके दो श्रुतज्ञान हैं, इस प्रकार इससे यह सिद्ध हुआ कि श्रुतज्ञान से भी श्रुतज्ञान होता है, अतः मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है यह कथन नहीं बनता है ? समाधान-यावत् श्रुतज्ञानों के प्रारम्भ में मतिज्ञान होता है इस दृष्टि को सामने रखकर ही प्रस्तुत सूत्र में 'मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है' यह कहा गया है। अथवा जितने भी श्रुतज्ञानपूर्वक तज्ञान होते हैं उनमें से पूर्व ज्ञानको उपचार से मतिज्ञान मानने पर 'मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान होता है। यह नियम बन जाता है। ___ शंका-श्रुत का अर्थ आगम या शास्त्र है, इसलिये उसके ज्ञान को ही श्रुतज्ञान मान लेनेमें क्या आपत्ति है ? __समाधान-श्रुतका भनन या चिन्तनात्मक जिनना भी ज्ञान होता है वह तो श्रुतज्ञान है ही; किन्तु उसके साथ उस जातिका जो अन्य ज्ञान होता है उसे भी श्रुतज्ञान मानना चाहिये। श्रुतज्ञान के अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक ऐसे जो दो भेद मिलते हैं सो वे इसी आधार से किये गये हैं। शंका-श्रुत के दो, अनेक और बारह भेद कहे सो कैसे ? समाधान-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट ये श्रुतके दो भेद हैं। इनमें से अंगबाह्य के अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के आचारांग आदि बारह भेद हैं। शंका-ये तो भाषात्मक शास्त्रों के नाम हुए श्रुतज्ञान के नहीं, पर
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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