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मतिज्ञान के भेद आदि मतिज्ञान की उत्पत्ति में नियत साधन न होने से उनका यहाँ संग्रह नहीं किया ।। १४ ॥
मतिज्ञान के भेद---
स्वरूप
अवग्रहेहावायधारणाः ॥ १५ ॥ अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार मतिज्ञान के भेद हैं।
ज्यों ही इन्द्रिय विषय को ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त होती है त्यों ही स्वप्रत्यय होता है जिसे दर्शन कहते हैं और तदनन्तर विषय का अवग्रह आदि का
_ ग्रहण होता है जो अवग्रह कहलाता है । जैसे यह ' मनुष्य है ऐसा ज्ञान होना अवग्रह है। किन्तु यह
ज्ञान इतना कमजोर होता है कि इसके बाद संशय हो सकता है, इसलिये संशयापन्न अवस्था को दूर करने के लिये या पिछले ज्ञान को व्यवस्थित करने के लिये जो ईहन अर्थात् विचारणा या गवेषणा होती है वह ईहा है। जैसे जो मैंने देखा है वह मनुष्य ही होना चाहिये ऐसा ज्ञान ईहा है। ईहा के होने पर भी जाना हुआ पदार्थ मनुष्य ही है ऐसे अवधान अर्थात् निर्णय का होना अवाय है। तथा जाने हुए पदार्थ को कालान्तर में नहीं भूलने की योग्यता का उत्पन्न हो जाना ही धारणा है । यह धारणाही स्मृति आदि ज्ञानों की जननी है। आशय यह है कि जिस पदार्थ का धारणा ज्ञान नहीं होता उसका कालान्तर में स्मरण सम्भव नहीं।
पिछले सूत्र में मतिज्ञान की उत्पत्ति के जो पाँच इन्द्रिय और एक अनिद्रिय ये छह निमित्त बतलाये हैं उन सब से ये अवग्रह आदि चारों ज्ञान उत्पन्न होते हैं इसलिये मतिज्ञान के चौबीस भेद हो जाते हैं जो निम्नलिखित कोष्ठक में दरसाये गये हैं