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________________ २३ १. १४.] मतिज्ञान की प्रवृत्ति के निमित्त यह है कि नया किस ज्ञान के भेद हैं ? इसका समाधान करते हुए वे अन्य मत का लिखते हैं कि मतिज्ञान वर्तमान अर्थ को विषय करता है और नय त्रिकालगोचर अनेक द्रव्य और उल्लेख पर्यायों को विषय करते हैं इसलिये नय मतिज्ञान के भेद नहीं हैं। इस पर फिर शंका हुई कि यदि मतिज्ञान वर्तमान अर्थ को ही विषय करता है तो वह स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता और अभिनिबोधरूप कैसे हो सकता है ? इस शंका का उन्होंने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान,चिन्ता और अभिनिबोध रूप जो मनोमति है वह कारणमति से जाने गये अर्थ को ही विषय करती है, इसलिये मतिज्ञान को वर्तमान अर्थग्राही मानने में कोई बाधा नहीं आती। सो इस कथन से ऐसा ज्ञात होता है कि अकलंक देव ने अवग्रह, ईहा, अवाय और धोरणारूप कारणमति से यद्यपि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता और अभिनिबोध रूप मति में किसी अपेक्षा से भेद स्वीकार कर लिया है फिर भी उन्होंने इनके विषय में भेद नहीं माना है। तत्त्वार्थसूत्र में और उसके टीका ग्रन्थों में मतिज्ञान के जो ३३६ भेद गिनाये हैं उनको देखने से ऐसा ही ज्ञात होता है कि स्मृति आदिको मति से किसी ने भी जुदा नहीं माना है, इसलिये ये मति आदि मतिज्ञान के पर्यायवाची नाम हैं ऐसा यहाँ जानना चाहिये ॥१३॥ मतिज्ञान की प्रवृत्ति के निमित्त तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥ वह अर्थात् मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रियरूप निमित्त से उत्पन्न होता है। ___+'नहि मतिभेदा नयाः त्रिकालगोचरानेकद्रव्यपर्यायविषयत्वात् , मतेः साम्प्रतिकार्थग्राहित्वा । मनोमतेररि स्मृतिप्रत्यभिज्ञानचिन्ताभिनिरोधात्मकायाः कारणमतिपरिच्छिन्नार्थविषयत्वात् ।' लघी. वि० श्लो०६६-६७ ।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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