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________________ तत्त्वार्थसूत्र [१. १०. ११. १२. से उत्पन्न होता है वह परोक्ष है और जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा की योग्यता के यथायोग्य बल से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है। उक्त पाँचों ज्ञान अपनी अपनी योग्यतानुसार प्रमाण के इन दो भेदों में बँटे हुए हैं; मति और श्रुत ये दो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होने के कारण परोक्ष प्रमाण कहलाते हैं तथा अवधि, मनपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना सिर्फ आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाते हैं। ___ राजवार्तिक आदि ग्रन्थों में अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण मान कर भी मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान व आगम इन ज्ञानों को परोक्ष कहा है परन्तु यहाँ प्रत्यक्ष और परोक्ष का यह लक्षण स्वीकृत नहीं है। यहाँ तो परोक्ष में पर शब्द से इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेश आदि बाह्य साधन लिये हैं तथा प्रत्यक्ष में अक्ष शब्द से आत्मा लिया है, इसलिए इस व्यवस्था के अनुसार मतिज्ञान भी यद्यपि परोक्ष प्रमाण ठहरता है तथापि राजवार्तिक आदि में लौकिक दृष्टि से उसे प्रत्यक्ष कहा है। अन्य दर्शनों में अक्ष का अर्थ इन्द्रिय करके इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष और उसके सिवा शेष ज्ञानों को परोक्ष बतलाया है। किन्तु प्रत्यक्ष और परोक्ष के इस लक्षण के अनुसार योगी का ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं ठहरता जो उक्त दर्शनकारों को भी इष्ट नहीं है। अतः प्रत्यक्ष और परोक्ष के वे ही लक्षण युक्तियुक्त हैं जो प्रारम्भ में दिये हैं। मतिज्ञान के पर्यायवाची नाम मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥१३॥
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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