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________________ १. ३.] सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के हेतु प्रकट हो जाता है। इसे उपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं। आगम में उपशम के दो भेद किये हैं करणोपशम और अकरणोपशम । अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के द्वारा जो उपशम होता है वह करणोपशम है और इसके सिवा शेष उपशम अकरणोपशम कहलाता है । प्रकृत में उपशम से करणोपशम लिया है इसके होने पर औपरामिक सम्यग्दर्शन प्रकट होता है। जो सम्यग्दर्शन क्षय से होता है वह क्षायिक मम्यग्दर्शन है । क्षयका अर्थ है कर्म का आत्मा से सर्वथा जुदा हो जाना। यहाँ सम्यग्दर्शन का प्रकरण है, इस लिये जो कर्म सम्यग्दर्शन के प्रतिबन्धक हैं उनका अभाव ही विवक्षित है। जो सम्यग्दर्शन कर्मो के क्षयोपशम से होता है वह क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन है । क्षयोपशम का अर्थ है क्षय और उपशम । इसमें सम्यग्दर्शन के प्रतिबन्धक कर्मों के वर्तमान सर्वघाती निषेकों का उदयाभावी क्षय, आगामी काल में उदय में आने वाले सर्वघाती स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम और देशघाती स्पर्घकों का उदय रहता है। सारांश यह है कि यह सम्यग्दर्शन देशघाती म्पर्धकों के उदय की प्रधानता से होता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के 'अन्तरंग साधन सम्यग्दर्शन के विरोधी कर्मो का उपशम, क्षय या क्षयोपशम है यह सिद्ध होता है । तत्त्वतः सम्यग्दर्शन एक है। ये तीन भेद निमित्त की प्रधानता से किये गये हैं, इसलिये यहाँ उनका उसी रूप से विवेचन किया है ॥३॥ तत्त्वों का नाम निर्देशजीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥ ४॥ जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व है। ये जीवादि सात तत्त्व हैं जिनका इस ग्रन्थ में विस्तार से विवेचन किया है। तथापि यहाँ उनके स्वरूप का संक्षेप में निर्देश करते हैं।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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