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आत्म निवेदन
तासूत्र पर अनेक टीकायें लिखी गई हैं पर वे मात्र मूल सूत्रों का अन्वयार्थ लिखने तक ही सीमित हैं । मेरा ध्यान इस कमी की ओर गया और इसीलिये मैंने तत्त्वार्थसूत्र पर शंका समाधान के साथ प्रस्तुत विस्तृत विवेचन लिखा है।
यह विवेचन लिखते समय मेरे सामने प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी का तत्त्वार्थसूत्र रहा है। इसमें उसका ढाँचा तो मैंने स्वीकार किया ही है, साथ ही कहीं कहीं पण्डितजी के विवेचन को भी आवश्यक परिवर्तन के साथ या शब्दशः मैंने इस विवेचन का अङ्ग बनाया है । पण्डितजी जैन दर्शन के प्रकाण्ड और मर्मज्ञ विद्वान् हैं। उनकी शैली और भाषा भी मजी हुई और प्रांजल है । इससे मुझे प्रस्तुत विवेचन के लिखने में बड़ी सहायता मिली है।
मेरी इच्छा इसमें जैन दर्शन व धर्म की प्राचीन मान्यताओं को यथावत् संकलन करने की ही रही है। इसके लिये कहीं कहीं मुझे चालू व्याख्याओं में प्राचीन आगमों के आधार से आवश्यक परिवर्तन भी काना पड़ा है । मेरा विश्वास है कि जैनदर्शन जैसे सूक्ष्म विषय के अध्ययन करने में इसमें बड़ी सहायता मिलेगी ।
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एक बात अवश्य है कि सर्वार्थसिद्धि में जो 'पुट्ठ' सुगोदि सद्द' इत्यादि गाथा उद्धृत है उसका ठीक विवेचन मैंने सर्वार्थसिद्धि के अनुवाद में किया है । उसके अनुसार स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र ये चारों इन्द्रियाँ प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी दोनों प्रकार की ठहरती हैं । किन्तु प्रस्तुत विवेचन में इस बात का निर्देश नहीं कर सका हूँ । इसमें 'अर्थस्य' सूत्र की व्याख्या करते समय सर्वार्थसिद्धि के आधार से जो