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तत्त्वार्थसूत्र
[१. १. यद्यपि आत्मा का स्वभाव दर्शन, ज्ञान और चारित्र है फिर भी इनके पीछे सम्यक् विशेषण प्रतिपक्ष भावों के निराकरण करने के लिये
दिया है। बात यह है कि संसारी आत्मा मोहवश सम्यक् विशेषणकी
पणका मिथ्यादृष्टि हो रहा है जिससे उसका ज्ञान और सार्थकता चारित्र भी विपरीताभिनिवेश को लिये हुए हो रहा है। चूंकि यह मोक्ष का प्रकरण है, इसलिये यहाँ इन भावों का निराकरण करने के लिये दर्शन, ज्ञान और चारित्र के पीछे सम्यक् विशेषण लगाया है।
इन तीनों में से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ होते हैं। आशय यह है कि ज्ञान में समीचीनता सम्यग्दर्शन के निमित्त से आती
है, इसलिये जिस समय दर्शनमोहनीय के उपशम साहचर्य सम्बन्ध
५ या क्षयोपशम से मिथ्यादर्शन दूर हो कर सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है उसी समय मिथ्याज्ञान का निराकरण हो कर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है । जैसे धन पटल के दूर होने पर सूर्य का प्रताप और प्रकाश एक साथ व्यक्त होते हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान भी एक साथ व्यक्त होते हैं, इसलिये ये दोनों सहचारी हैं । किन्तु सम्यक् चारित्र का इस विषय में अनियम है। अर्थात् किसी के सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ प्रकट होता है और किसी के सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के प्रकट होने के कुछ काल बाद प्रकट होता हैं। तब भी सम्यक्चारित्र अकेला नहीं रहता यह निश्चित है।
जैसे स्कन्ध, शाखा, प्रतिशाखा, पत्ते, फूल और गुच्छा इन सबके सिवा वृक्ष कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं, इसलिये ये प्रत्येक वृक्षस्वरूप हैं। मानार तथापि प्रत्येक को सर्वथा वृक्षरूप मान लेने पर ये
वृक्ष के अंग नहीं ठहरते, इसलिये ये प्रत्येक वृक्षरूप नहीं भी हैं। वैसे ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि अनन्त धर्मों के सिवा आत्मा कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है इसलिये ये ही प्रत्येक धर्म आत्मा