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________________ तत्त्वार्थसूत्र [१. १. ____ संसारी जीव के कर्ममल और शरीर अनादि काल से सम्बन्ध को प्राप्त हो रहे हैं, इसलिये इनके दूर हो जाने पर मास का स्वरूप जो जीव की स्वाभाविक शुद्ध अवस्था प्रकट होती है उसीका नाम मोक्ष है। जिस गुण के निर्मल होने पर अन्य द्रव्यों से भिन्न ज्ञानादि गुणव ले आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति हो वह सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन मोक्षके साधनोंका के साथ (जीवादि पदार्थों का) होनेवाला यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। तथा राग और द्वेष को दूर स्वरूप करने के लिये ज्ञानी पुरुष की जो चर्या होती है वह सम्यकचारित्र है। किं वा राग, द्वेष और योग की निवृत्ति होकर जो स्वरूपरमण होता है वह सम्यकचारित्र है। उक्त तीन साधन क्रम से पूर्ण होते हैं। सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन पर्ण होता है तदन्तर सम्यग्ज्ञान और अन्त में सम्यकचारित्र पर्ण होता सीमाना है। यतः इन तीनों की पूर्णता होने पर ही आत्मा पर " द्रव्य से सर्वथा मुक्त होकर पूर्ण विशुद्ध होता है अतः ये तीनों मिल कर मोक्ष के साधन माने हैं। इनमें से एक भी साधन के अपूर्ण रहने पर परिपूर्ण मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि साधनों की अपूर्णता ही विवक्षा भेद से साध्य' की अपूर्णता है । तेरहवें गुणस्थान के प्रारम्भ में सम्यग्दर्शन और सम्यज्ञान यद्यपि परिपर्णरूप में पाये जाते हैं तथापि सम्यक्चारित्र के पूर्ण न होने से मोक्ष नहीं प्राप्त होता। शंका-जब कि दसवें गुणस्थान के अन्त में चारित्रमोहनीय का अभाव होकर बारहवें गुणस्थान के प्रारम्भ में पूर्ण क्षायिक चारित्र प्राप्त हो जाता है तब फिर तेरहवें गुणस्थान में इसे अपूर्ण क्यों बतलाया गया है ? समाधान-चारित्र की पूर्णता केवल चारित्रमोहनोय के अभाव से
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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