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४५६ तत्त्वार्थ सूत्र
[१०.८. धर्मास्तिकायाभावात् ॥ ८॥ सब कर्मों का वियोग होने के बाद ही मुक्त जीव लोक के अन्त तक ऊपर जाता है। . पूर्व प्रयोग से, संग का अभाव होने से, बन्धन के टूटने से ओर वैसा गमन करना स्वभाव होने से (मुक्त जीव ऊपर जाता है।)
घुमाये गये कुम्हार के चक्र के समान, लेप से मुक्त हुई तूंबड़ी के समान, अण्ड के बीज के समान और अग्नि की शिखा के समान
धर्मास्तिकाय का अभाव होने से मुक्त जीव लोकान्त से और ऊपर नहीं जाता।
मुक्त होने के पहले जीव कर्मों से बंधा था इसलिये उसकी सारी क्रिया कर्मों के उद्यानुसार होती थी, किन्तु कर्मों से मुक्त होने के बाद वह क्या करता है ? कहाँ रहता है इत्यादि प्रश्न होते हैं इन्हीं प्रश्नों का हेतु और दृष्टान्तपूर्वक यहाँ उत्तर दिया गया है___कर्मों से मुक्त होते ही जीव ऊपर लोक के अन्त तक गति करता है
और फिर वहाँ ठहर जाता है। बात यह है कि मुक्ति मनुष्यगति से ही होती है अन्य गति से नहीं और मनुष्यों का सद्भाव ढाई द्वीप और उनके बीच में आये हुए दो समुद्रों में पाया जाता है। इस समस्त क्षेत्र का विष्कम्भ पंतालीस लाख योजन है। लोक भी, जहाँ मुक्त जीव रहते हैं, इतना ही ठीक इसके ऊपर है, इसलिये मुक्त होते ही जीव ठीक अपनी सीध में ऊपर चला जाता है और उसके सबसे ऊपर के
आत्मप्रदेश लोक के अन्तिम प्रदेशों से जा लगते हैं । मुक्त जीव की यह लोकान्तप्रापिणी गति क्यों होती है इसमें सूत्रकार ने चार हेतु और उन हेतुओं की पुष्टि में चार उदाहरण दिये हैं। जिनका खुलासा निम्न प्रकार है
१ एक तो मुक्त जीव पूर्व प्रयोग से गति करता है । पूर्व प्रयोग का