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________________ ६.८-१७.] परीषहों का वर्णन ४२५ तथा गरमी को समतापूर्वक सह लेना अनुक्रम से शीत और उष्ण परीषहजय है। ५ डांस मच्छर आदि जन्तुओं का उपद्रव होने पर खिन्न न होते हुए उसे समभाव से सह लेना और तत्सम्बन्धी किसी प्रकार का विकल्प मन में न लाना दंशमशक परीषहजय है। ६ नग्नता को धारण कर किसी प्रकार की लज्जा और ग्लानि का अनुभव नहीं करना और उसके योग्यतापूर्वक निर्वाह के लिए अखण्ड ब्रह्मचर्य का धारण करना नग्नता परीषहजय है। ७ यद्यपि निर्जन वन और तरुकोटर आदि में सबका मन नहीं लग सकता तथापि साधु वहाँ निवास करता हुआ भी अपने प्रतिदिन के कर्तव्यों में तत्पर रहता है, इससे उसे रंचमात्र भी ग्लानि नहीं होती, यह उसका अरति परीषहजय है। ८ कोई साधु एकान्त पर्वत गुफा आदि में तपश्चर्या या स्वाध्याय आदि कर रहा है ऐसी हालत में यदि कोई युवती आकर उसे फुसलाने लगे, उसके अवयवों से क्रीड़ा करनी चाहे तो भी सुगुप्त रहना मन को अपने काबू में रखना स्त्री परीषहजय है। ६ देशान्तर में धमहेतु पर्यटन करते हुए चर्यासम्बन्धी बाधाओं को समतापूर्वक सह लेना उनका मन में विकल्प न होना चर्या परीषह जय है । १० वीरासन, उत्कुटिकासन आदि विविध प्रकार की आसनों को लगाकर ध्यान करते हुए यदि तन्निमित्तक किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न हो तो उसे समतापूर्वक सह लेना उसका मन में किसी प्रकार का विकल्प न होना निषद्या परीषहजय है । ११ नीची ऊँची और कठोर किन्तु निर्दोष भूमि के मिलने पर रात्रि के उत्तरार्ध में उस पर एक पार्श्व से किंचित् निद्रा लेते समय भूमि जन्य बाधा को शान्ति से सह लेना और उसका विकल्प मन में नहीं लाना शय्यापरीषहजय है। १२ मुनि जीवन के माहात्म्य को न समझ कर यदि कोई अज्ञानी कठोर और अप्रिय वचन कहे तो भी उन्हें शान्ति से सह लेना और अप्रिय बोलनेवाले के प्रति मन में बुरा भाव न लाना आक्रोश परीषहजय है। १३ अंग प्रत्यंग का छेद डालना,
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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