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________________ सापतून ४२४ तत्त्वार्थसून [६.६-१७. इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि परीषहों का विस्तृत विवेचन किया जाय। इसी आवश्यकता को ध्यान में रखकर प्रस्तुत सूत्रों द्वारा सूत्रकारने परीषहों का लक्षण, उनकी संख्या, उनके स्वामी का निर्देश, उनके कारणों का निर्देश और एक साथ एक जीव में सम्भव परीपहों की संख्या इन पाँच बातों का निर्देश किया है। जिनका यहाँ अनुक्रम से विचार करते हैं जीवन में अन्तरंग और बहिरंग कारणों से विविध प्रकार की आपत्तियाँ उपस्थित होती हैं और समता या व्यग्रता से उन्हें सहन भी करना पड़ता है। किन्तु जो आपत्तियाँ अच्छे उद्देश्य लाख विचार से सही जाती हैं उनका फल अच्छा ही होता है। सबसे अच्छा उद्देश्य मोक्षमार्ग पर स्थिर रहना और कर्मों की निर्जरा करना इन दो बातों के सिवा और क्या हो सकता है, क्योंकि इन दोनों का फल मोक्ष है इसीलिये यहाँ इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये जो स्वकृत या परकृत आपत्तियाँ स्वेच्छा से सहन करने योग्य हैं उन्हें परीषह कहते हैं यह बतलाया है। प्रकृत में ऐसे परीषह बाईस बतलाये हैं। यद्यपि यह संख्या न्यूनाधिक भी की जा सकती है तथापि मुनि की क्रिया को ध्यान में रख _ कर मुख्यतः जीवन में किस किस प्रकार की कठिनाई सख्या विचार उत्पन्न होती है जिसका समता पूर्वक निर्विकल्प भाव से सहन कर लेना आवश्यक है यह जानकर परीषह बाईस ही नियत किये गये हैं। इन बाईस परीषहों पर किस प्रकार विजय पानी चाहिये अब अनुक्रम से इसका विचार करते हैं-१,२ भूख और प्यास की उत्कट बाधा उपस्थित होने पर भी चित्त को उस ओर न ले जाना और मन में उनका विकल्प ही नहीं होने देना क्रम से क्षुधा और पिपासा परीषहजय है। ३,४ चाहे माघ की ठंड हो या ज्येष्ठ की गरमी तथापि इस ओर किसी प्रकार का ध्यान न जाना और ठंडी
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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