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________________ विषय चौदह पिण्ड प्रकृतियां आठ प्रत्येक प्रकृतियां दशक और स्थावर दशक गोत्रकर्मकी दो प्रकृतियां अन्तराय कर्म की प्रकृतियां स्थितिबन्ध का वर्णन अनुभागबन्ध का वर्णन [ १५. ] अनुभव का कारण अनुभव की द्विधा प्रकृत्ति प्रकृतियों के नामानुरूप उनका अनुभव फलदान के बाद कर्म की दशा प्रदेशबन्ध का वर्णन जीवक परतन्त्रता का कारण कर्म है। कर्म का स्वरूप कर्म की विविध अवस्थाए पुण्य और पाप प्रकृतियों का विभाग ४२ पुण्य प्रकृतियां ८२ पाप प्रकृतियां संवर का स्वरूप संवर का उपाय गुप्ति का स्वरूप समिति के भेद नवां अध्याय पृष्ठ ३८७ ३९० ३९० ३९१ ३९१२ ३९२ ३९४ ३९४ ३९४ ३.२६ ३९६ ३९७ ३९८ ३९९ ४०० ४०४ ४०५ ४०५ ४०७ ४१३ ४१५ ४१५
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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