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________________ ६.७.] अनुप्रेक्षा के भेद ४१७ साधु पुरुषों के लिये हितकारी वचन बोलना सत्य है। प्रत्येक मनुष्य के साथ हितकारी और परिमित संभाषण करना भाषा समिति है और केवल साधुओं और उनके भक्तों के प्रति हित, मित और यथार्थ वचन बोलना सत्यधर्म है यही भाषा समिति से सत्यधर्म में अन्तर है। षटकाय के जीवों की भले प्रकार से रक्षा करना और इन्द्रियों को अपने अपने विषयों में नहीं प्रवृत्त होने देना संयम है। कर्मों को निर्मूल करने के निमित्त जो बाह्य और आभ्यन्तर तप तपे जाते हैं अर्थात् अच्छे उद्देश्य से त्याग के आधारभूत नियमों को अपने जीवन में उतारना तप है। संयत को ज्ञानादि सद्गुणों का प्रदान करना त्याग है। किसी भी वस्तु में यहाँ तक कि शरीर में भी ममत्व बुद्धि न रखना आकिंचन्य है । स्त्री विपयक सहवास, स्मरण और कथा आदि का सर्वथा त्याग करके सुगुप्त रहना, तथा पुनः स्वच्छन्द प्रवृत्ति न होने पावे इसलिये संघ में निवास करना ब्रह्मचर्य है। इन दस प्रकार के धर्मों को अपने जीवन में उतार लेने से ही उनके प्रतिपक्षी भावों का निरास होता है और इसलिये ये धर्म संवर के उपाय बतलाये गये हैं। ऐसे क्षमा आदिक जिनसे ऐहिक प्रयोजन की सिद्धि होती है संवर के कारण नहीं हैं यह बतलाने के लिये उत्तम विशेषण दिया है। धर्म आत्मा का स्वभाव है और जीवन में आये हुए विकार का नाम अधर्म है। यद्यपि दस धर्मों में इसी धर्म का आत्मा की विविध अवस्थाओं द्वारा कथन किया गया है फिर भी यहाँ इस दृष्टि को सामने रखकर मात्र धर्म का व्यवहार परक अथे दिया गया है ॥६॥ अनुप्रेक्षा के भेद-- अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोक - बोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥७॥ अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, श्राव,
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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