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________________ ४१६ तत्त्वार्थसूत्र हुए भी हित, मित और मिष्ट वचन बोलना भाषा समिति है। ३एषणा का अर्थ चर्या है । ४६ दोष और ३२ अन्तराय टालकर भोजन लेना एषणा समिति है। ४-पीछी कमण्डलु आदि उपकारणों को व शास्त्र को देख भाल कर व प्रमार्जित करके लेना व रखना आदाननिक्षेपण समिति है। ५-जन्तु रहित प्रदेश में देख भाल कर व प्रमार्जन करके मल-मूत्र आदि का त्याग करना उत्सर्ग समिति है। ____ शंका-गुप्ति और समिति में क्या अन्तर है ? समाधान-गुप्ति में क्रियामात्र का निषेध मुख्य है और समिति में जो भी आवश्यक क्रिया की जाय वह सावधानीपूर्वक की जाय इसकी मुख्यता है ॥५॥ धर्म के भेदउत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः॥६॥ उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य यह दस प्रकार का धर्म है। क्षमा का अर्थ है क्रोध के कारण मिलने पर भी क्रोध न होकर सहनशीलता का बना रहना और क्रोध के कारणों पर कलुषता का न होना। भीतर और बाहर नम्रता धारण करना और अहंकार पर विजय पाना ही मार्दव है। अधिकतर कुल, जाति, बल, रूप, विद्या, ऐश्वर्य, धन आदि के निमित्त से अहंकार उत्पन्न होता है । इनमें से कुछ कल्पित हैं और कुछ विनश्वर हैं अतः इनके निमित्त से चित्त में अहंकार नहीं पैदा करना भी मार्दव है। काय, वचन और मन की प्रवृत्ति को सरल रखना आजव है। सब प्रकार के लोभ का त्याग करना यहाँ तक कि धर्म के साधन और शरीर में भी आसक्ति न रखना शौच है।'
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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