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४१४ तत्त्वार्थसूत्र
[९.४. उपायों में तप की भी परिगणना की है। किन्तु तपमात्र संवर का कारण न हो कर निर्जरा का भी कारण है, इसलिये तप से कर्मी को निर्जरा होती है यह भी कहा है।
शंका-साधारणतया तप स्वर्गादिक की प्राप्ति का साधन माना जाता है, इसलिये तप के निमित्त से कर्मों की निर्जरा मानना इष्ट नहीं है ?
समाधान-तप न केवल स्वर्गादिक की प्राप्ति का साधन है अपि तु वह मोक्ष की प्राप्ति का भी साधन है। तपश्चरण के समय विद्यमान कषाय भाव स्वर्गादिक की प्राप्ति का साधन है और उत्तरोत्तर कषाय का अभाव मोक्ष की प्राप्ति का साधन है यह उक्त कथन का तात्पर्य है ॥२--३॥
___ गुप्ति का स्वरूप --- सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥ ४ ॥ योगों का सम्यक् प्रकार से निग्रह करना गुप्ति है।
मन, वचन और काय इन तीन प्रकार के योगों की स्वेच्छापूर्वक प्रवृत्ति न होना योगनिग्रह है। यह अच्छे उद्देश्य से भी किया जाता है और बुरे उद्देश्य से भी। प्रकृत में ऐसा योगनिग्रह ही गुप्ति मानी गई है जो अच्छे उद्देश्य से किया गया हो।
गुप्ति का जीवन के निर्माण में बड़ा हाथ है, क्योंकि भवबन्धन से मुक्ति इसके बिना नहीं मिलती। किन्तु गुप्ति में मात्र बाह्य प्रवृत्ति का निषेध इष्ट न होकर प्रवृत्तिमात्र का निषेध लिया गया है।
फिर भी जहाँ तक चारित्र का सम्बन्ध है इसमें अप्रशस्त क्रिया का निग्रह तो इष्ट है ही प्रशस्त क्रिया में भी शरीरिक क्रिया का नियमन करना, मौन धारण करना और संकल्प विकल्प से जीवन की रक्षा करना क्रमशः कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति है।