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६.२-३.]
संवर के उपाय
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स्थान से होता है । कषाय का अभाव ग्यारहवें गुणस्थान से होता है ।
और योग तेरहवें गुणस्थान तक रहता है ।
ये व
कारण हैं । इनका अभाव होने पर उस उस निमित्त से होनेवाला आस्रव नहीं होता इसलिये यहाँ आस्रव के निरोध को संवर कहा है ॥ १ ॥
संवर के उपाय
सगुप्ति समितिधर्मानुप्रेक्षा परीपहजय चारित्रैः ।। २ ।। तपसा निर्जरा च ॥ ३ ॥
वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है ।
तप से संवर और निर्जरा होती है ।
जो संसार के कारणों से आत्मा का गोपन अर्थात् रक्षा करता है वह गुप्त कहलाती है । प्राणियों को पीड़ा न हो इसलिये भले प्रकार विचारपूर्वक बाह्य वृत्ति करना समिति है । जो इष्ट स्थान में धरता है वह धर्म है । शरीर आदि के स्वभाव का बार बार चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा है | क्षुधादिजन्य वेदना के होने पर सहन करना परीषह है और परीषह का जय परीषहजय है । तथा राग और द्वेष को दूर करने के लिये ज्ञानी पुरुष की चर्या सम्यक् चारित्र है । इनसे कर्मों के का निरोध होता है इसलिये संवर के उपायरूप से इनका निर्देश किया हैं ।
शंका-- अभिषेक, दीक्षा, आदि का संवर के कारणों में निर्देश क्यों नहीं किया ?
समाधान — प्रवृत्तिमूलक क्रियामात्र संवर का कारण न हो कर व का कारण है इसलिये यहाँ उनका निर्देश नहीं किया है । इनके सिवा संवर का प्रमुख कारण तप भी है ।
इसलिये संवर के