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________________ ६.२-३.] संवर के उपाय ४१३ स्थान से होता है । कषाय का अभाव ग्यारहवें गुणस्थान से होता है । और योग तेरहवें गुणस्थान तक रहता है । ये व कारण हैं । इनका अभाव होने पर उस उस निमित्त से होनेवाला आस्रव नहीं होता इसलिये यहाँ आस्रव के निरोध को संवर कहा है ॥ १ ॥ संवर के उपाय सगुप्ति समितिधर्मानुप्रेक्षा परीपहजय चारित्रैः ।। २ ।। तपसा निर्जरा च ॥ ३ ॥ वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है । तप से संवर और निर्जरा होती है । जो संसार के कारणों से आत्मा का गोपन अर्थात् रक्षा करता है वह गुप्त कहलाती है । प्राणियों को पीड़ा न हो इसलिये भले प्रकार विचारपूर्वक बाह्य वृत्ति करना समिति है । जो इष्ट स्थान में धरता है वह धर्म है । शरीर आदि के स्वभाव का बार बार चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा है | क्षुधादिजन्य वेदना के होने पर सहन करना परीषह है और परीषह का जय परीषहजय है । तथा राग और द्वेष को दूर करने के लिये ज्ञानी पुरुष की चर्या सम्यक् चारित्र है । इनसे कर्मों के का निरोध होता है इसलिये संवर के उपायरूप से इनका निर्देश किया हैं । शंका-- अभिषेक, दीक्षा, आदि का संवर के कारणों में निर्देश क्यों नहीं किया ? समाधान — प्रवृत्तिमूलक क्रियामात्र संवर का कारण न हो कर व का कारण है इसलिये यहाँ उनका निर्देश नहीं किया है । इनके सिवा संवर का प्रमुख कारण तप भी है । इसलिये संवर के
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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