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________________ ४०२ तत्त्वार्थ सूत्र [ ८.२४. साधारणतः प्रत्येक कर्म के विषय में नियम है कि वह बँधने के बाद कब से काम करने लगता है । बीच में जितने काल तक काम नहीं करता है उसकी बाधाकाल संज्ञा है । आबाधाकाल के बाद प्रति समय एक एक निषेक काम करता है । यह काम विवक्षित कर्म के पूरे होने तक चालू रहता है । आगम में प्रथम निषेक की बाधा दी गई है। शेष निषेकों की आबाधा क्रम से एक एक समय बढ़ती जाती है । इस हिसाब से अन्तिम निषेक की बाधा एक समय कम कर्मस्थिति प्रमाण होती है । आयुकर्म के प्रथम निपेक की क्रम जुदा है । शेष क्रम समान है । बाधा का उत्कर्षण — स्थिति और अनुभाग के बढ़ाने की उत्कर्षण संज्ञा है । यह क्रिया बन्ध के समय ही सम्भव है । अर्थात् जिस कर्म का स्थिति और अनुभाग बढ़ाया जाता है उसका पुनः बन्ध होने पर पिछले बँधे हुए कर्म का नवीन बन्ध के समय स्थिति अनुभाग बढ़ सकता है । यह साधारण नियम है । अपवाद इसके अनेक हैं । अपकर्षण स्थिति और अनुभाग के घटाने की अपकर्षण संज्ञा है । कुछ अपवादों को छोड़कर किसी भी कर्म की स्थिति और अनुभाग कम किया जा सकता है । इतनी विशेषता है कि शुभ परिणामों से अशुभ कर्मों का स्थिति और अनुभाग कम होता है । तथा अशुभ परिणामों से शुभ कर्मों का स्थिति और अनुभाग कम होता है । संक्रमण - एक कर्म प्रकृति के परमाणुओं का सजातीय दूसरी प्रकृतिरूप हो जाना संक्रमण है यथा असाता के परमाणुओं का सातारूप हो जाना । मूल कर्मों का परस्पर संक्रमण नहीं होता । यथा ज्ञानावरण दर्शनावरण नहीं हो सकता । आयुकर्म के अवान्तर भेदों का परस्पर संक्रमण नहीं होता और न दर्शनमोहनीय का चारित्रमोहनीय रूप से या चारित्रमोहनीय का दर्शनमोहनीय रूप से ही संक्रमण होता है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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