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________________ ८. २४, प्रदेशबन्धका वर्णन चार आयुकर्म । आयुकर्मों में जिस आयु का बन्ध होता है उसी रूप में उसे भोगना पड़ता है। उसके स्थिति अनुभाग में उलट फेर भले ही हो जाय पर भोग उनका अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार ही होता है। यह कभी सम्भव नहीं कि नरकायु को तिर्यञ्चायु रूप से भोगा जा सके या तियश्चायु को नरकायु रूप से भोगा जा सके । शेप कर्मा के विषय में ऐसा कोई नियम नहीं है। मोटा नियम इतना अवश्य है कि मूल कर्म में बदल नहीं होता। इस नियम के अनुसार दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये मूल कर्म मान लिए गये हैं। कर्म की ये विविध अवस्थाएं हैं जो बन्ध समय से लेकर उनकी निर्जरा होने तक यथासम्भव होती हैं। इनके नाम ये हैं___बन्ध, सत्त्व, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उद्य, उदीरणा, उपशान्त, निधत्ति और निकाचना। ____बन्ध-कर्मवर्गणाओं का आत्मप्रदेशों से सम्बद्ध होना बन्ध है। इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद हैं। जिस कम का जो स्वभाव है वह उसकी प्रकृति है। यथा ज्ञानावरण का स्वभाव ज्ञान को श्रावृत करना है। स्थिति कालमर्यादा को कहते हैं। किस कर्म की जघन्य और उत्कृष्ट कितनी स्थिति पड़ती है इस सम्बन्ध में अलग अलग नियम है । अनुभाग फलदान शक्ति को कहते है । प्रत्येक कम में न्यूनाधिक फल देने की योग्यता होती है । प्रति समय बँधनेवाले कर्म परमाणुओं की परिगणना प्रदेश बन्ध में की जाती है। कम परमाणु और आत्मप्रदेशों का परस्पर एक क्षेत्रावगाही संश्लेषरूप सम्बन्ध होना यह भी प्रदेशबन्ध है। सत्त्व-बँधने के बाद कर्म आत्मा से सम्बद्ध रहता है। तत्काल तो वह अपना काम करता ही नहीं। किन्तु जब तक वह अपना काम नहीं करता है तब तक उसकी वह अवस्था सत्ता नाम से अभिहित होती है। उत्कर्षण आदि के निमित्त से होनेवाले अपवाद को छोड़कर
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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