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________________ ३६७ ८. २४.] प्रदेशबन्धका वर्णन उदय रहने पर उसका भोग सातारूप से ही होता है किन्तु तव असाता स्तिबुक संक्रमण द्वारा सातारूप से परिणमन करती जाती है इस लिये इसका उदय परमुख से होता है। उद्य कालके एक समय पहले अनुदयरूप प्रकृतिके निषेक का उदय को प्राप्त हुई प्रकृतिरूपसे परिणम जाना स्तिवुक संक्रमण है। जो प्रकृतियां जिस कालमें उदयमें नहीं होती हैं किन्तु सत्तारूपमें विद्यमान रहती हैं उन सबका प्रति समय इसी प्रकार परिणमन होता रहता है ।। २१-२३॥ प्रदेशबन्धका वर्णन -- नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥२४॥ प्रति समय योग विशेष से कर्मप्रकृतियोंके कारणभूत सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाही और स्थित अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु सब आत्मप्रदेशोंमें ( सम्बन्धको प्राप्त) होते हैं।। ___ इस सूत्र द्वारा प्रदेशबन्धका विचार किया गया है । संसारी आत्मा के जो प्रति समय कर्मबन्ध होता है वह कैसा, कब, किस कारणसे, किसमें और कितना होता है इन्हीं सब प्रश्नोंका इसमें समाधान किया गया है। 'नामप्रत्ययाः' पद देकर यह बतलाया गया है कि इन बंधनेवाले कर्मों द्वारा ही ज्ञानावरणादि अलग अलग प्रकृतियोंका निर्माण होता है। दूसरे "सर्वतः' पद देकर बतलाया गया है कि संसारी जीवके इन कर्मोंका सदा बन्ध होता रहता है। ऐसा एक भी क्षण नहीं जब इनका बन्ध न होता हो । तीसरे 'योगविशेषात्' पद देकर यह बतलाया गया है कि जिसके मानसिक, वाचिक या कायिक जैसा योग होता है उसके अनुसार कर्मों का न्यूनाधिक बन्ध होता है। या इस पद द्वारा यह बतलाया गया है कि प्रदेशबन्धका मुख्य कारण योग है। योगका अभाव हो जानेपर कर्मबन्ध नहीं होता। चौथे 'सूक्ष्म
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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