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उनका अनुभव
३९६ तत्त्वार्थसूत्र
[८.२१-२३. अब प्रश्न यह है कि किस प्रकृतिको कैसा अनुभाग प्राप्त होता है। इसका यही समाधान है कि जिस प्रकृतिका जो नाम है उसी के अनुप्रकृतियोंके नामानुरूप
. सार उसका अनुभागबन्ध होता है। जैसे ज्ञाना"वरण प्रकृतिमें ज्ञानको और दर्शनावरणमें दर्शनको
आवृत्त करनेका अनुभाग प्राप्त होता है। इसी प्रकार अन्य मूल व सब उत्तर प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिये। __ पहले जिस कर्मका जैसा अनुभाग बतला आये हैं उसीके अनुसार उस कर्मका फल मिलता है। तथा फल मिलनेके बाद वह कर्म आत्मा
से जुदा हो जाता है और इसीका नाम निर्जरा है। फलदान के बाद
* यह निर्जरा सविपाक और अविपाक के भेद से दो कर्मकी दशा .
- प्रकार की होती है। विपाक फलकालको कहते हैं। फल कालके प्राप्त होने पर फल देकर जो कर्मकी निर्जरा होती है वह सविपाक निर्जरा है और फलकालके प्राप्त हुए बिना उदीरणा द्वारा फल देकर जो कर्मकी निर्जरा होती है वह अविपाक निर्जरा है। पेड़में लगे लगे ही आमका पककर गिरना सविपाक निर्जराका उदाहरण है और पकनेके पहले ही तोड़कर पाल द्वारा प्रामका पकाना अविपाक निर्जराका उदाहरण है।
सूत्र में 'च' शब्द रखकर निर्जरा का अन्य निमित्त सूचित किया है। अगले अध्यायमें तपसे निर्जरा होती है यह बतलाने वाले हैं, इसलिये इस सूत्र में 'च' शब्द देनेसे यह ज्ञात होता है कि फल कालके पूरा होने पर फल देकर भी कर्मों की निर्जरा होती है और अन्य निमित्तों से भी कर्मोकी निर्जरा होती है। हर हालतमें कर्म किसी न किसी रूपमें अपना फल अवश्य देता है। बिना फल दिये किसी भी कर्म की निर्जरा नहीं होती इतना निश्चित है । इसके विषयमें यह नियम है कि उदयवाली प्रकृतियोंका फल स्वमुखसे मिलता है और अनुदयवाली प्रकृतियों का फल परमुखसे मिलता है। उदाहरणार्थ-साताका