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________________ ८.५-१३. ] मूलप्रकृति के अवान्तर भेद और उनका नाम निर्देश ३८७ समाधान-उक्त अर्थ शरीर चिन्ह की प्रधानता से किया गया है किन्तु वेद नोकषाय में जीवका परिणाम विवक्षित है, इसलिये प्रकृत में शरीर चिन्ह की अपेक्षा से अर्थ न करके परिणामों की अपेक्षा से स्त्रीवेद आदि का अर्थ करना उचित है। __ अनन्त अर्थात् संसार का कारण होने से मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है और जो कर्म इसका अनुबन्धी हो वह अनन्तानुबन्धी कषायवेदनीयके र क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाता है। जिसका उदय जीवके देशविरतिके धारण नहीं करनेमें निमित्त सोलह भेद है वह कर्म अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ कहलाता है। जिस कर्म का उदय जीव के सर्वविरति के नहीं धारण करने में निमित्त है वह कम प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ कहलाता है। तथा जिसका उदय सर्वविरति का प्रतिबन्ध नहीं करता किन्तु सर्वविरति में प्रमाद दोष के लगाने में निमित्त होता है वह संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ है ॥ ९॥ जिनका उदय नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवपर्याय में जाकर र जीवन बिताने में निमित्त होता है वे क्रम से नरकाय, - तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु हैं। ये चारों भवविपाकी कर्म हैं, इसलिये इनका नरकादि भवों के निमित्त रूप से विपाक होता है ॥ १०॥ __ जिसका उदय जीवके नारक आदि रूप भावके होनेमें निमित्त है वह गति नामकर्म है। इसके नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति चौदह पिण्ड . ये चार भेद हैं । नरकगतिका उदय नारक भावके होने प्रकृतियाँ में निमित्त है। इसी प्रकार शेष गतियों के सम्बन्ध में जानना चाहिये । जाति का अर्थ सदृशता है। प्रकृत में इसके एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, जीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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