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________________ ८.५-१३. मूलप्रकृति के अवान्तर भेद और उनका नाम निर्देश ३८५ समाधान-बाह्य सामग्री का सद्भाव जहाँ है वहीं उसकी प्राप्ति सम्भव है। यों तो इसकी प्राप्ति जड़ चेतन दोनों को होती है। क्योंकि तिजोड़ी में भी धन रखा रहता है इसलिये उसे भी धन की प्राप्ति कही जा सकती है। किन्तु जड़ के रागादि भाव नहीं होता और चेतन के होता है इसलिये वही उसमें ममकार और अहंकार भाव करता है। शंका-यदि बाह्य सामग्री का लाभालाभ पुण्य पाप का फल नहीं है तो न सही पर सरोगता और नीरोगता यह तो पाप पुण्य का फल मानना ही पड़ता है ? समाधान --- सरोगता और नीरोगता यह पाप पुण्य के उदय का निमित्त भले ही हो जाय पर स्वयं यह पाप पुण्य का फल नहीं है। जिस प्रकार बाह्य सामग्री अपने अपने कारणों से प्राप्त होती है उसो पूकार सरोगता और नीरोगता भी अपने अपने कारणों से प्राप्त होती है। इसे पाप पुण्य का फल मानना किसी भी हालत में उचित नहीं है। शंका-सरोगता और नीरोगता के क्या कारण है ? समाधान-अस्वास्थ्यकर आहार, विहार व संगति करना आदि सरोगता के कारण हैं और स्वास्थ्यवर्धक आहार, विहार व संगति करना आदि नीरोगता के कारण हैं। ___इस प्रकार विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि साता वेदनीय और असातावेदनीय का कार्य सुख और दुख की सामग्री प्राप्त कराना नहीं है। स्वर्ग में उत्तरोत्तर पुण्यातिशय के होने पर भी बाह्य सम्पत्ति की उत्तरोत्तर हीनता देखी जाती है, चतुर्थ आदि नरकों में साता का उदय होने पर भी बाह्य सम्पत्ति की प्राप्ति नहीं देखी जाती, साधुओं के साता का उदय होने पर भी सम्पत्ति का अभाव देखा जाता है और प्रतिमा आदि जड़ होने पर भी उनकी पूजा प्रतिष्ठा देखो जाती है, इसलिये भी मालूम पड़ता है कि साता और असाता सुख ' और दुख की सामग्री के जनक नहीं हैं॥८॥
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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