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________________ ३४८ तत्त्वार्थसूत्र [७. २४-२७. अन्त में उसकै पथभ्रष्ट होने की भी सम्भावना रहती है, इसलिये इसे सम्यग्दर्शन का अतीचार बतलाया है। ४-५-जिनकी दृष्टि आहेत तत्त्वज्ञान पर स्थिर नहीं रहती या उससे विपरीत मार्ग का अनुसरण करती है उनकी प्रशंसा करना अन्य दृष्टि प्रशंसा है और उनकी या उनके सद्भूत और असद्भत गुणों को स्तुति करना अन्यदृष्टिसंस्तव है। ऐसा करने से कदाचित् साधक अपने मार्ग से स्खलित होकर अन्य मार्गका अनुसरण करने लगता है, इसलिये ये दोनों सम्यग्दर्शन के अतीचार बतलाये गये हैं। तात्पर्य यह है कि धार्मिकता या मोक्षमार्ग की दृष्टि से अन्य की प्रशंसा और स्तुति करना उचित नहीं, क्योंकि ऐसा करने से सम्यग्दर्शन मलिन होता है। __ ये सम्यग्दर्शन के पाँच अतीचार हैं, सम्यग्दृष्टि के लिये जिनका त्याग करना आवश्यक है। शंका-प्रशंसा और संस्तव में क्या अन्तर है ? समाधान-प्रशंसा मन से की जाती है और स्तुति बचन से यही इन दोनों में अन्तर है ॥२३॥ व्रत और शील के अतीचारों की संख्या और क्रम से उनका निर्देशव्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥ २४ ॥ बन्धवधच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः ॥ २५ ॥ मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥२६॥ स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानो - न्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥ २७ ॥
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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