SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४४ तत्त्वार्थसूत्र [७. २०-२२. समाया हुआ है तत्त्वज्ञान तो उसका पोषक भाग है। इसलिये सदाचार को स्थिर रखने के लिये अतिथिसंविभागवत के पालन करने पर दृढ़ता से जोर देना आवश्यक है। इन चार व्रतों से त्यागधर्म की शिक्षा मिलती है इसलिये ये शिक्षाव्रत कहलाते हैं। जब कोई अव्रती श्रावक व्रती होकर जीवन व्यतीत करना चाहता है तो उसे इन बारह व्रतों का स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है। न्यूनाधिक प्रमाण में इन बारह व्रतों का या इनके सहकारी अन्य व्रतों का पालन करनेवाला गृहस्थ व्रती श्रावक कहलाता है। इस प्रकार व्रतों के साथ जीवन व्यतीत करता हुआ जो श्रावक समाधिपूर्वक मरना चाहता है वह जीवन के अन्तिम समय में सल्लेखना व्रत को धारण करता है। भले प्रकार से काय और कषाय का कृश करना , सल्लेखना है । जीवन के अन्त में जब यह प्राणी देखता है कि मेरी यह पर्याय छूटनेवाली है तो वह उससे तथा अपने दूसरे परिकरों से अपना राग घटाने का प्रयत्न करता है पर यह बात यों ही सहज साध्य नहीं है किन्तु इसके लिये बड़े भारी प्रयत्न की आवश्यकता है। इसके लिये इसे कुटुम्ब आदि से ममत्व घटाकर अन्त में देह, आहार और ईहित का त्याग करते हुए आत्मध्यान में अपने को जुटाना पड़ता है तब कहीं समाधिपूर्वक मरण प्राप्त होता है। यह व्रत मरण से पूर्व मरण तक लिया जाता है इसलिये इसको मारणान्तिकी सल्लेखना कहते हैं । यह व्रत मुनि और श्रावक दोनों के लिये बतलाया है। प्रकृत में गृहस्थधर्म का प्रकरण होने से उन्हें इसका आराधक बतलाया गया है। शङ्का-इस व्रत का धारी व्यक्ति क्रम से आहार पानी का त्याग करके शरीर का विसर्जन करता है, यह तो स्ववध ही है और स्ववध तथा स्वहिंसा में कोई अन्तर नहीं, इसलिये इसे व्रत मानना उचित नहीं है ? .
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy