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व्रती का स्वरूप
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शंका- यदि अपवादरूप में श्रमरणजन पात्र चीवर को स्वीकार करते हैं तो इसमें क्या आपत्ति है ?
समाधान- अपवादरूप में वस्त्र, पात्र च्यादि को स्वीकार करने का मार्ग खुला हुआ है । पर वह जिन लिंग न होकर गृहस्थ लिंग ही है । जो अपनी कमजोरीवश वस्त्र पात्र आदि की आवश्यकता अनुभव करता है उसे चाहिये कि वह गृहस्थलिंग में प्रतिष्ठित रह कर ही जीवन ये हुए विकारों को दूर करने का प्रयत्न करता रहे और जब इतनी निर्विकार अवस्था देखे कि इनके बिना भी उसका काम चल सकता है तब वह जिन लिंग को स्वीकार कर ले ॥ १७ ॥
व्रतीका स्वरूप --
निःशल्यो व्रती ॥ १८ ॥
जो शल्यरहित हो वह व्रती है ।
पहले अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि पाँच व्रत बतला आये हैं, इसपर से यह ख्याल होता है कि जो इन व्रतों को स्वीकार करता है. वह व्रती है; पर सच्चा बती होने के लिये केवल अहिंसा आदि पाँच व्रतों के स्वीकार करनेमात्र से काम नहीं चल सकता किन्तु इसके लिये उसे शल्यों का त्याग करना भी आवश्यक है । शल्य भीतर ही भीतर पीड़ा पैदा करनेवाली वस्तु का नाम है । जैसे किसी स्वस्थ मनुष्य के पैरों में काँटा आदि के चुभ जाने पर उसके रहते हुये वह स्वास्थ्य का अनुभव नहीं कर पाता वैसे ही व्रतों के स्वीकार कर लेने पर भी शल्य के रहते हुए कोई भी प्राणी व्रती नहीं हो सकता । व्रतों का स्वीकार कर लेना और बात है और जीवन में उनको उतार लेना और बात है । यह तब तक सम्भव नहीं जब तक व्रतों को स्वीकार कर लेनेवाले व्यक्ति की मानसिक स्थिति ठीक न हो । मानसिक स्थिति को ठीक रखने के लिये शल्यों का त्याग करना आव