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________________ ३३६ तत्त्वार्थसूत्र [७. १७. चीवर को स्वीकार करते थे तो इसे श्रमण परम्परा के प्रतिकूल कैसे माना जाय ? समाधान यह बात नहीं है। न तो श्रमण भगवान् महावीर के पूर्ववर्ती श्रमण ही पात्र चीवर रखते थे और न उनके कालवर्ती श्रमण ही ऐसा करते थे। हाँ इसके बाद के शिष्यों में परिस्थितिवश यह दोष अवश्य आ गया है जो अब तक चालू है। शंका-वह परिस्थिति क्या थी ? समाधान-बाह्य परिस्थिति कुछ भी रही हो, अन्तरंग परिस्थिति तो जीवन की कमजोरी ही है। प्रारम्भ में आई तो कुछ श्रमणों के जीवन में यह कमजोरी पर इसके बाद इसने सम्प्रदाय का ही रूप ले लिया है और इस सम्प्रदाय भेद ने जीवन के क्षेत्र में कितनी विपमता ला दी है यह अनुभव करने की वस्तु है। एक ओर जहाँ साधु पद के बाद पात्र चीवरों और बाह्य आडम्बरों की मर्यादा बढ़ती ही जाती है और साथ ही इसकी पुष्टि के लिये अपरिग्रहवाद के मूर्तिमान् प्रतीक जिन मन्दिरों में जिन प्रतिमायें भी विविध अलंकारों से सजाई जातो हैं वहाँ दूसरी ओर इसके परिणाम स्वरूप श्रमणसंघ अनेक भागों में बट गया है जिससे अपरिग्रहबाद के प्रचार में बड़ी वाधा उपस्थित होने लगी है। एक प्रकार से समस्त श्रमणसंघ ने अपरिग्रहवाद को तिलाञ्जलि सी दे दी है। सर्वत्र धर्मप्रचार की धुन न होकर प्रभाव जमाने की धुन है । यद्यपि इस प्रवृत्ति का अन्त कहाँ होगा यह तो हम नहीं जानते पर इतना अवश्य जानते हैं कि ये सब प्रवृत्तियाँ श्रमण परम्परा के प्रतिकूल हैं। इनसे विकारी आत्माओं के जीवन में परिवर्तन लाना कठिन है। यदि स्वयं श्रमणजन या उनके अनुयायी इतना जान लें कि धर्म विकारों को प्रोत्साहन देने में नहीं है बल्कि उनके त्याग में है तो बहुत सम्भव है कि वे अपनी इस प्रवृत्ति को छोड़ दें।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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