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तत्त्वार्थसूत्र
[७. १७. पानी तथा पीछी कमण्डलुका होना आवश्यक है वैसे वस्त्र, पात्र आदि का रखना आवश्यक नहीं है। स्वावलम्बन के पूर्ण अभ्यासी को यह देखना होता है कि कम से कम आवश्यकताएं क्या हैं जिनके बिना चालू जीवन को योग्यता पूर्वक संचालित करना कठिन है। इसके बाद अनावश्यक पदार्थों को वह स्वयं छोड़ देता है यह बात नहीं है, किन्तु उसके जीवन में से उतर जाने के बाद वे स्वयं छूट जाते हैं। यही कारण है कि वस्त्र पात्रादिको स्वीकार करना साधु के जीवन की कमजोरी समझी जाती है। कमजोरी ही नहीं किन्तु इससे उसका साधुत्व ही नष्ट हो जाता है। इसी लिये उसके जीवन में इनके त्याग का विधान किया गया है।
शंका-यदि ऐसी बात है तो फिर समयप्राभृत में पाखण्डी लिंग . और नाना प्रकार के गृही लिंगों को मोक्ष पथ से बाह्य क्यों बतलाया है ?
समाधान-वहां इन्हें केवल आत्म स्वरूप समझने का निषेध किया है। व्यवहार से तो इन्हें वहां स्वीकार ही किया है। वहां लिखा है कि मोक्ष पथ में व्यवहार से मुनिलिंग और गृहस्थलिंग थे दो ही लिंग प्रयोजक माने गये हैं। एक निश्चय नय ऐसा है जो मोक्ष पथ में किसी भी लिंग को स्वीकार नहीं करता । सो इसका यह भाव है कि निश्चय से आत्मपरिणति ही प्रयोजक है। किन्तु निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध की अपेक्षा विचार करने पर जो निमित्त जिस कार्य का प्रयोजक है उसका विधान करना आवश्यक ही है। यह ठीक है कि अन्तरंग भाव बाह्य लिंग पर अवलम्बित नहीं हैं। बाह्यलिंग के रहते हुए भी अन्तरंग भाव नहीं होते । पर जब भी अन्तरंग भाव होते हैं तब वे बाह्य लिंगके सद्भाव में ही होते हैं। यही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है इस लिये इसकी उपेक्षा कैसे की जा सकती है।
शंका-बाह्यलिंग का अन्तरंग के भावोंसे जब कोई सम्बन्ध ही