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________________ ३२० तत्त्वार्थसूत्र [७. १३. निमित्त हैं ऐसी व्यवस्था उनकी निश्चित नहीं है। उदाहरणार्थ एक युवती. एक ही समय में साधु के लिये वैराग्य के होने में निमित्त होती है और रागो के लिये राग के होने में निमित्त होती है। इसका यही अर्थ है कि जिस पदार्थ की जिस काल में जिस प्रकार की स्वभावगत कार्यमर्यादा होती है उसी के अनुसार अन्य पदार्थ उसके होने में निमित्त कारण होता है। इसलिये जीवन में निमित्त का स्थान होकर भी वस्तु की परिणति को उसके आधीन नहीं माना जा सकता। यह तात्त्विक मीमांसा है जिसका सम्यग्दर्शन न होने के कारण ही जीवन में ऐसी भूल होती है जिससे यह दूसरे के विगाड़ बनाव का कर्ता अपने को मानता है और बाह्य साधनों के जुटाने में जुटा रहता है। तात्त्विक दृष्टि से विचार करने पर इस परिणति का नाम ही हिंसा है। हमें जगत्, में जो विविध प्रकार की कषाय मूलक वृत्तियाँ दिखलाई देती हैं वे सब इसके परिणाम हैं। जगत् की अशान्ति और अव्यवस्था का भी यही कारण है। एक बार जीवन में भौतिक साधनों ने प्रभुता पाई कि वह बढ़ती ही जाती है। धर्म और धर्मायतनों में भी इसका साम्राज्य दिखलाई देने लगा है। अधिकतर पढ़े लिखे या त्यागी लोगों का मत है कि वर्तमान में जैन धर्म का अनुयायी राजा न होने के कारण अहिंसा धर्म की उन्नति नहीं हो रही है। मालूम पड़ता है कि उनका यह मत आन्तरिक विकार का ही द्योतक है। तीर्थंकरों का शारीरिक बल ही सर्वाधिक माना गया है किन्तु उन्होंने स्वयं अपने जीवन में ऐसी असकल्पना नहीं की थी और न वे शारीरिक बल या भौतिक बल के सहारे धर्मका प्रचार करने के लिये उद्यत ही हुए थे। भौतिक साधनों के प्रयोग द्वारा किसी के जीवन की शुद्धि हो सकती है यह त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है । उन्माद से उन्माद की ही वृद्धि होती है। यह भौतिक साधनों का उन्माद ही अधर्म है। इससे आत्मा की निर्मलता. का लोप होता है और वह इन साधनों के बल पर संसार पर छा जाना चाहता है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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