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७. १३.] हिंसा का स्वरूप
३१६ यह बात नहीं है किन्तु इसकी एक मर्यादा है। दृष्टि को अन्तर्मुखी रखते हुए अपने जीवन की कमजोरी के अनुसार बाह्य साधनों का आलम्बन लेना और बात है किन्तु इसके विपरीत बाह्य साधनों को ही सब कुछ मान बैठना और बात है। ___तत्त्वतः प्रत्येक पदार्थ स्वतन्त्र और अपने में परिपूर्ण है। उसमें जो भी परिवर्तन होता है वह उसकी अपूर्णता का द्योतक न होकर उसकी योग्यतानुसार ही होता है इसलिये किसी भी पदार्थ को शक्ति का संचय करने के लिये किसी दूसरे पदार्थ की आवश्यकता नहीं लेनी पड़ती। निमित्त इतना बलवान् नहीं होता कि वह अन्य द्रव्य में से कुछ निकाल दे या उसमें कुछ मिला दे। द्रव्य में न कुछ आता है और न उसमें से कुछ जाता ही है । अनन्तकाल पहले जिस द्रव्य का जो स्वरूप था आज भी वह जहाँ का तहाँ और आगामी काल में भी वह वैसा ही बना रहेगा। केवल पर्याय क्रम से बदलना उसका स्वभाव है इसलिये इतना परिवर्तन उसमें होता रहता है। माना कि यह परिवर्तन सर्वथा अनिमित्तक नहीं होता है किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं कि यह निमित्ताधीन होता है। जैसे वस्तु की कार्यमर्यादा निश्चित है वैसे सब प्रकार के निमित्तों की कार्यमर्यादा निश्चित नहीं । धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, काल द्रव्य और आकाश द्रव्य ये ऐसे निमित्त हैं जो सदा एक रूप में कार्य के प्रति निमित्त होते हैं। धर्म द्रव्य सदा गति में निमित्त होता है। अधर्म द्रव्य स्थिति में निमित्त होता है। काल द्रव्य प्रति समय की होनेवाली पर्याय में निमित्त होता है और आकाश द्रव्य अवगाहना में निमित्त होता है। इन द्रव्यों के निमित्तत्व की यह योग्यता नियत है। इसमें त्रिकाल में भी अन्तर नहीं आता। इन द्रव्यों का अस्तित्व भी इसी आधार पर माना गया है। किन्तु इनके सिवा प्रत्येक कार्य के प्रति जो जुदे जुदे निमित्त माने गये हैं वे पदार्थ के स्वभावगत कार्य के अनुसार ही निमित्त कारण होते हैं। वे अमुक ढंग के कार्य के प्रति ही