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________________ ६. १०-२७.] आठ प्रकार के कर्मों के आनवों के भेद २६७ पड़नेवाले अभयदान और ज्ञानदान का देना यथाशक्ति त्याग है। अपनी शक्ति को बिना छिपाये हुए ऐसा कायक्लेश आदि तप करना जिससे मोक्षमार्ग की वृद्धि हो यथाशक्ति तप है। तपश्चर्या में अनुरक्त साधुओं के ऊपर आपत्ति आने पर उसका निवारण करना और ऐसा प्रयत्न करना जिससे वे स्वस्थ रहें साधुसमाधि है। गुणी पुरुष के कठिनाई में आ पड़ने पर जिस विधि से वह दूर हो जाय वह प्रयत्न करना वैयावृत्यकरण है। अरहंत, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में परिणामों की निर्मलता पूर्वक अनुराग रखना अरहंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति है। छह आवश्यक क्रियाओं को यथासमय करते रहना आवश्यकापरिहाणि है। मोक्षमार्ग को स्वयं जीवन में उतारना और समयानुसार उपयोगी कार्यों द्वारा सर्गसाधारण जनता का उसके प्रति आदर उत्पन्न करना मार्गप्रभावना है। जैसे गाय बछड़े पर स्नेह करती है वैसे ही साधर्मी जनों पर निष्काम स्नेह रखना प्रवचनवत्सलत्व है । ये दर्शनविशुद्धि आदि तीर्थकर नामकर्म के आस्रव हैं। शंका-तीर्थकर नामकर्म का बन्ध करनेवाले प्राणी के क्या ये समग्र कारण होते हैं या इनमें से कुछ कारणों के होने पर भी तीर्थकर नामकर्म का बन्ध होता है ? समाधान-तीर्थकर नामकर्म का बन्ध करनेवाले के ये सब कारण होना ही चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है। किसी के एक दर्शनविशुद्धि के होने पर भी तीर्थकर नामकर्म का बन्ध होता है और किसी के दो से लेकर सोलह कारणों के विकल्प से होने पर भी तीर्थकर नामकर्म का बन्ध होता है। पर इन सब में दर्शनविशुद्धि का होना अनिवार्य है ॥२४॥ सच्चे या झूठे दोषों के प्रकट करने की बृत्ति निन्दा कहलाती है।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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