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अशुभ
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तत्त्वार्थसूत्र [६. १०-२७. कर्म का बन्ध हो तो वैमानिक देवों की आयु का ही हो सकता है अन्य आयु का नहीं ॥२१॥ सोचना कुछ, बोलना कुछ और करना कुछ इस प्रकार मन, वचन
और काय की कुटिलता योगवक्रता है। अन्यथा - प्रवृत्ति कराना विसंवादन है। ये तथा मिथ्यादर्शन,
पिशुनता, चित्त की अस्थिरता, घट बड़ देना लेना, परनिन्दा और आत्म प्रशंसा आदि अशुभ नामकर्म के आस्रव हैं।
शंका--योगवक्रता और विसंवादन में क्या अन्तर है ? .
समाधान--स्वयं सोचना कुछ, बोलना कुछ और करना कुछ यह योगवक्रता है और दूसरे से ऐसा कराना विसंवादन है, यही इन दोनों में अन्तर है ।। २२॥ __ऊपर जो अशुभ नामकर्म के आस्रव बतलाये हैं उनसे उलटे सब
है शुभ नामकर्म के आस्त्रव हैं। उदाहरणार्थ-अपने - मन, बचन और काय को सरल रखना, जो सोचा
हो वही कहना और वैसा ही करना। दूसरे को अन्यथा प्रवृत्ति कराने में नहीं लगाना, चुगलखोरी का त्याग करना, सम्यग्दर्शन, चित्त को स्थिर रखना आदि शुभ नामकर्म के आस्रव हैं । ___ सम्यग्दर्शन के साथ जो लोक कल्याण को भावना होती है वह दर्शनविशुद्धि है । सन्यज्ञानादि मोक्षमार्ग और उसके साधन गुरु आदि
के प्रति उचित आदर रखना विनयसंपन्नता है। " अहिंसा, सत्य आदि व्रत हैं और इनके पालने में
सहायक क्रोध त्याग आदि शील हैं, इनका निर्दोष रीति से पालन करना शीलवतानतिचार है । जीवादि स्वतत्त्व विषयक सम्यरज्ञान में निरन्तर समाहित रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है। सांसारिक भोग सम्पदाएँ दुःख की कारण हैं उनसे निरन्तर डरते रहना अभीक्ष्णसंवेग है। अपनी शक्ति को बिना छिपाए हुए मोक्षमार्ग में उपयोगी