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________________ ६. ७-९.] अधिकरण के भेद-प्रभेद २८३ उत्तरगुण निर्वर्तना ये दो भेद हैं। मूलपद से पाँचों शरीर, वचन, मन श्वासोच्छवास इनका ग्रहण होता है तथा उत्तरपद से काष्ठकम, पुस्तकर्म और चित्रकर्म आदि का ग्रहण होता है। पाँचों शरीरों, वचन, मन और श्वासोछवास की जो रचना अन्तरङ्ग साधनरूप से जीवों को शुभाशुभ प्रवृत्ति में उपयोगी होकर कर्मबन्ध का कारण होती है वह मूलगुण निर्वर्तनाधिकरण है। तथा जो प्रतिमा, काष्ठकर्म, पुस्तकर्म और चित्रकर्म आदि बहिरङ्ग साधनरूप से जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति में उपयोगी होती हुई कर्मबन्ध का कारण होती है वह उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण है। निक्षेपाधिकरण के अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमुष्टनिक्षेपाधिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण और अनाभोगनिक्षेपाधिकरण ये चार भेद हैं। किसी भी वस्तु को बिना देखी हुई भूमि आदि पर या बिना देखे ही किसी वस्तु का कहीं पर रख देना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेप है। देख कर भी ठीक तरह से प्रमार्जन किये बिना ही वस्तु को रख देना दुष्प्रमार्जितनिक्षेप है। प्रत्यवेक्षण और प्रमार्जन किये बिना ही सहसा अर्थात् उतावली से वस्तु को रख देना सहसानिक्षेप है। उपयोग के बिना ही किसी वस्तु को कहीं पर रख देना अनाभोगनिक्षेप है। ये चारों प्रकार के निक्षेप जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति में हेतु होने से कर्मबन्ध के कारण होते हैं। ___संयोग के भक्तपानसंयोगाधिकरण और उपकरणसंयोगाधिकरमा ऐसे दो भेद हैं। विरुद्ध अन्न, जल आदि का संयोग करना जो जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति में हेतु होता हुआ कर्मबन्ध का कारण होता है भक्तपानसंयोगाधिकरण है। तथा पात्र, पीछी आदि उपकरणों का संयोग करना जो जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति में हेतु होता हुआ कर्मबन्ध का कारण होता है उपकरणसंयोगाधिकरण है। निसर्गाधिकरण के शरीर, वचन और मन ये तीन भेद हैं। शरीर
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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