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२७६ तत्त्वार्थसूत्र
[६.५.. पूर्व के अर्थात् साम्परायिक कर्मालव के इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रियारूप भेद हैं जो क्रम से पाँच, चार, पाँच और पच्चीस हैं। ___ यद्यपि सम्पराय का अर्थ कषाय होने से केवल कषायों को ही साम्परायिक आस्रव के भेदों में गिनाना था तथापि विशेष परिज्ञान के लिये इन्द्रिय, अव्रत और क्रियाओं को भी साम्परायिक आस्रव के भेदों में गिनाया है। कषायों के सद्भाव में ही इन्द्रियाँ इष्टानिष्ट विषयों में प्रवृत्त होती हैं, हिंसादिक अत्तों में प्रवृत्ति भी कषायमूलक ही होती है
और पच्चीस क्रियायें भी कपायों की विविधता का ही फल हैं इसलिये इन सबको साम्परायिक आस्रव के भेदों में गिनाया है। ____ स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। इनका वर्णन अध्याय दो सूत्र उन्नीस में आ चुका है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। इनका विशेष वर्णन अध्याय आठ सूत्र नौ में किया है। हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह ये पाँच अव्रत है। इनका विशेष वर्णन अध्याय सात सूत्र तेरह से सत्रह तक है। क्रिया पञ्चीस हैं जिनका स्वरूप इस प्रकार है
१--जो चैत्य, गुरु और प्रवचन की पूजा का कारण होने से सम्यक्त्व के बढ़ानेवाली है वह सम्यक्त्व क्रिया है। २-जो मिथ्यात्व के उदय से अन्य देव की उपासना रूप प्रवृत्ति होती है वह मिथ्यात्व क्रिया है। ३-शरीर आदि द्वारा जाने आने आदि रूप प्रवृत्ति करना प्रयोग क्रिया है। ४-संयत या त्यागी का अविरति की ओर झुकाव होना समादान' क्रिया है । ५-ईर्यापथ की निमित्तभूत क्रिया ईर्यापथ क्रिया है।
१-वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर प्रांगोपांग नाम कर्म के आलम्बन से काययोग, वचनयोग और मनोयोग की रचना में समर्थ पुद्गलों का गहण करना समादान क्रिया है । रा० वा०, श्लोक वा० ।