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साम्परायिक कर्मास्नव के भेद
२७५ क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कपाय है। जिसके इन चार कषायों में से किसी एक का उदय विद्यमान है वह कषाय सहित आत्मा है और जिसके किसी भी कषाय का उदय नहीं है वह कपाय रहित आत्मा है। दसवें गुणस्थान तक सभी जीव कपाय सहित हैं
और ग्यारहवें से लेकर शेष सब जीव कषाय रहित हैं। __आत्मा का सम्पराय--संसार बढ़ाने वाला कर्म या सम्परायपराभव करनेवाला कर्म साम्परायिक कर्म कहलाता है। जैसे गीले चमड़े पर पड़ी हुई धूलि उसके साथ चिपक जाती है वैसे ही योग द्वारा ग्रहण किया गया जो कम कपाय के कारण आत्मा से चिपक जाता है वह साम्परायिक कर्म है । यद्यपि ईयाका अर्थ गमन है पर यहाँ उसका अर्थ योग लिया गया है, इसलिये ईर्यापथ कर्म का अर्थ केवल योग द्वारा प्राप्त होनेवाला कर्म होता है। आशय यह है कि जैसे सूखी भीत पर धूलि आदि के फेकने पर वह उससे न चिपक कर तत्काल जमीन पर गिर जाती है वैसे ही योग से ग्रहण किया गया जो कम कपाय के अभाव में आत्मा से न चिपक कर तत्काल अलग हो जाता है वह ईर्यापथ कर्म है । प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ये बन्ध के चारों भेद साम्परायिक कम में पाये जाते हैं और ईर्यापथ कर्म में प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ये दो ही भेद पाये जाते हैं, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध नहीं पाये जाते। चूंकि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का कारण कषाय है तथा प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध का कारण योग है इसी से कपाय सहित आत्मा का योग साम्परायिक आस्रव बतलाया है और कपाय रहित जीव का योग ईयोपथ आस्रव बतलाया है॥३॥
साम्परायिक कर्मास्रव के भेदइन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥ ५॥