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________________ ६. १-२.] योग और आस्रव का स्वरूप २७१ होती रहती है। इसी कम्पन व्यापार से कर्म और नोकर्म वर्गणाओं का ग्रहण होता है। जैन सिद्धान्त में इस क्रिया को ही योग कहा है। तथापि आत्म प्रदेशों का यह कम्पन व्यापार सव आत्म प्रदेशों में एकसा न होकर न्यूनाधिकरूप में होता है जिससे उसका तारतम्य स्थापित होता है और इसी तारतम्य के कारण विविध प्रकार के योगस्थान बनते हैं। __ शंका-योग और योगस्थान में क्या अन्तर है ? समाधान-आत्म प्रदेश परिस्पन्द का नाम योग है और योग की विविधता के कारण तरतमरूपसे प्राप्त हुए स्थानका नाम योगस्थान है। यह योग आलम्बनके भेद से तीन प्रकार का है-काययोग, वचनयोग और मनोयोग। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के होने पर औदारिकादि सात प्रकार की शरीर वर्गणाओं के तीनों योगों का पुद्गलों के आलम्बन से होनेवाला आत्म प्रदेश स्वरूप परिस्पन्द काययोग है। शरीर नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुई वचन वर्गणाओं का आलम्बन होने पर तथा वीर्यान्तराय, मतिज्ञानावरण और अक्षरश्रुतज्ञानावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई आन्तरिक वचन लब्धि के होन पर वचन वर्गणा के आलम्बन से जो वचनरूप परिणाम के अभिमुख आत्मा में प्रदेशों का परिस्पन्द होता है वह वचन योग है। तथा वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम रूप आभ्यन्तर मनोलब्धि के होने पर मनोवर्गणाओं के आलम्बन से मनः परिणाम के अभिमुख आत्मा का जो प्रदेश परिस्पन्द होता है वह मनोयोग है । यद्यपि सयोग केवली के भी तीनों प्रकार का योग होता है तथापि वहाँ वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण का क्षय होने पर तीनों प्रकार की वर्गणाओं के आलम्बन से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्द योग है ऐसा व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि सयोगकेवली के क्षायोपशमिक भाव नहीं होता।
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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