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________________ छठा अध्याय सात तत्त्वों में से जीव और अजीव तत्त्व का निरूपण किया जा चुका है। अब आस्रव तत्त्व का निरूपण करते हैं। योग और प्रास्रव का स्वरूपकायवाङ्मनःकर्म योगः ॥१॥ स आस्रवः ॥२॥ काय, वचन और मन की क्रिया योग है। वही योग आस्रव है। पातञ्जल योग दर्शन में योग का अर्थ चित्तवृत्ति का निरोध किया है। जैन ग्रंथों में भी अन्यत्र इसका यह अर्थ देखने को मिलता है। किन्तु प्रकृत में योग का अर्थ इससे भिन्न है यह बतलाना प्रस्तुत सूत्र का प्रयोजन है। तपाये हुए लोहे को पानी में डालने पर जैसे पानी अति वेग से परिस्पन्दित होने लगता है वैसे ही वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम या क्षय के रहते हुए मनोवर्गणा, वचन वर्गणा और कायवर्गणा के आलम्बन से होनेवाला आत्म प्रदेशों का परिस्पन्द-हलन चलन योग कह _ लाता है । आशय यह है कि संसारी जीव के मध्य योगार यागस्थान के आठ प्रदेशों को छोड़ कर शेष सब प्रदेश प्रति समय, उद्वेलित होते रहते हैं। जो आत्मप्रदेश प्रथम क्षण में मस्तक के पास हैं वे ही अनन्तर क्षण में पैरों के पास और पैरों के प्रदेश मस्तकके पास पहुंचते हैं। संसार अवस्था में यह कम्पनव्यापार क्रिया प्रति समय
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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