________________
५.३८.] प्रकारान्तर से द्रव्य का स्वरूप २६५ गुण और पर्याय शब्द द्वारा कही गई है। उत्पाद और व्यय ये पर्याय के दूसरे नाम हैं और ध्रौव्य यह गुण का दूसरा नाम है, इसलिये द्रव्य को चाहे उत्पाद, व्यय. और ध्रौव्य स्वभाव कहो या गुण और पर्यायवाला कहो, दोनों का एक ही अर्थ है। गुण और पर्याय ये लक्ष्य स्थानीय हैं तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये लक्षण स्थानीय हैं, इसलिये गुण का लक्षण ध्रौव्य प्राप्त होता है तथा पर्याय का लक्षण उत्पाद और व्यय प्राप्त होता है। जिसका लक्षण किया जाय उसे लक्ष्य कहते हैं और जिसके द्वारा वस्तु की पहचान की जाय उसे लक्षण कहते हैं । गुण की मुख्य पहिचान उसका सदाकाल बने रहना है और पर्याय की मुख्य पहिचान उसका उत्पन्न होते रहना और विनष्ट होते रहना है ।
यहाँ द्रव्यों को लक्ष्य तथा गुण और पर्याय को उसका लक्षण कहा है। इससे सहज ही इनमें भेद की प्रतीति होती है, किन्तु वस्तुतः इनमें भेद नहीं है । जो द्रव्य है वही गुण और पर्याय हैं तथा जो गुण और पर्याय है वही द्रव्य है। इसी प्रकार पर्याय भी गुणों से सर्वथा जुदी नहीं है । गुणों का अन्वय स्वभाव ही गुरण शब्द द्वारा कहा जाता है
और उनकी विविध रूपता ही पर्याय शब्द द्वारा कही जाती है। सार यह है कि विश्लेषण करने पर इन सबकी पृथक् पृथक् प्रतीति होती है, वस्तुतः वे पृथक् पृथक् नहीं हैं।
इस विषय को ठीक तरह से समझने के लिये सोनेका दृष्टान्त ठीक होगा। सोना पीतत्व आदि अनेक धर्म और उनकी तरतमरूप अवस्थाओं के सिवा स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। कोई सोना कम पीला होता है और कोई अधिक पीला होता है। कोई गोल होता है और कोई त्रिकोण या चतुष्कोण होता है। सोना इन सब पीतत्व आदि शक्तियों में और उनकी प्रति समय होनेवाली विविध प्रकार की पर्यायों में व्याप्त कर स्थित है। सब द्रव्यों का यही स्वभाव है। अपने गुण पर्यायों के सिवा उनकी और स्वतन्त्र सत्ता नहीं ।