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________________ २४८ तत्त्वार्थसूत्र [५.३०. भाव की मीमांसा इसप्रकार की है तो फिर घटादि की उत्पत्ति में कुंम्हार आदि को और गति, स्थिति आदि में धर्मादि द्रव्यों को निमित्तकारणरूप से क्यों स्वीकार किया गया है। क्या इससे एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कर्ता है यह नहीं सिद्ध होता है । भेदवादियों ने भी तो इन्हें इसीरूप में कर्ता माना है। फिर क्या कारण है कि उनके उस मतका खण्डन किया जाता है। सो इस प्रश्न का यह समाधान है कि यद्यपि कार्यकारित्व की योग्यता तो उसकी उसी में है पर वह योग्यता निमित्तसापेक्ष होकर ही कार्यकारिणी मानी गई है, इसलिये प्रत्येक कार्य के होने में निमित्त को भी स्वीकार किया गया है। किन्तु कार्य के होने में निमित्त का कितना स्थान है यह अवश्य ही विचारणीय है। अतः आगे इसी बात का विचार किया जाता है। निमित्त दो प्रकार के हैं-एक निष्क्रिय पदार्थ और दूसरे सक्रिय पदार्थ। निष्क्रिय पदार्थों में धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्यों की परिगणना की जाती है और सक्रिय पदार्थ अगणित हैं। इनमें से सर्व प्रथम निष्क्रिय निमित्तों की अपेक्षा विचार करने पर वे अप्रेरक निमित्त ही प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ एक पुरुष गमन करता है और धर्म द्रव्य उसके गमन करने में निमित्त होता है। अब यहाँ विचारणीय यह है कि धर्म द्रव्य ने उस पुरुष के गमन करने के लिये प्रेरणा की तब वह गमन करने के लिये प्रवृत्त हुआ या वह जब गमन करने लगा तब धर्म द्रव्य उसके गमन करने में निमित्त हुआ। ये दो ऐसे विकल्प हैं जिनका निर्णय होने पर ही निष्क्रिय निमित्तों की कार्य मर्यादा निश्चित होती है। यह तो आगम में भी बतलाया है कि धर्म द्रव्य गति में निमित्त कारण तो है पर प्रेरक नहीं। इसका आशय यह है कि यदि गति क्रिया होती है तो वह निमित्त होता है अन्यथा नहीं। अनुभव से विचार करने पर भी यही बात समझ में आती है क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर सब पदार्थों की सर्वदा गति ही प्राप्त होगी, वे कभी भी स्थित नहीं रह
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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