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________________ ५.३०.] सत् की व्याख्या २४७ कर्ता सिद्ध हो जाय और दूसरे प्रत्येक कार्य में बुद्धिमान को आवश्यकता समझ में आ जाय । किन्तु विचार करने पर ये दोनों ही बातें सिद्ध नहीं होती हैं। न तो एक पदार्थ दूसरे का कर्ता ही सिद्ध होता है और न प्रत्येक कार्य में बुद्धिमान की आवश्यकता ही अनुभव में आती है। एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कर्ता तो तब बने जब वस्तु में स्वकतृत्व की योग्यता न मानी जाय । किन्तु इसके साथ यह बात भी तो है कि जब वस्तु में स्वकर्तृत्व की योग्यता नहीं मानी जाती है तो उसमें अन्य के द्वारा कतृत्व की योग्यता कहाँ से आ सकती है क्योंकि जो स्वयं अपने जीवन के लिये उत्तरदायी नहीं है वह दूसरे के जीवन के लिये उत्तरदायी केसे हो सकता है। इसलिये एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कर्ता है यह सिद्धान्त तो कुछ समझ में आता नहीं। युक्ति और अनुभव से भी इसकी सिद्धि नहीं होती। अनुभव में तो यही आता है और युक्ति से भी यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक पदार्थ का कर्तृत्व उसका उसो में है अन्य में नहीं। इसप्रकार जड़ और चेतन जितने भी पदार्थ हैं वे जब स्वयं अपने कर्ता सिद्ध होते हैं तो प्रत्येक कार्य के लिये बुद्धिमान् कारण की कल्पना करना भी संगत नहीं ठहरता किन्तु जो जैसा है वह उसी रूप में अपना कर्ता है यही सिद्ध होता है। यही कारण है कि प्रकृत में उत्पाद व्यय और ध्रौव्य वस्तु के स्वभावरूप से स्वीकार किये गये हैं। जो भी पदार्थ है वह जिस प्रकार अपने स्वरूप में स्थित रहता है उसी प्रकार वह परिणमन शील भी है। वही स्वयं कारण है और वही स्वयं कार्य है। जो उसका त्रैकालिक अन्वयरूप स्वभाव है वह तो कारण है और जो उसकी प्रति समय परिणमनशीलता है वह कार्य है। यह प्रत्येक पदार्थ के कार्यकारणभाव की मीमांसा है। यह क्रम इसीप्रकार से चालू था, इसीप्रकार से चालू है और इसी प्रकार से चालू रहेगा। इसमें कभी भी व्यतिक्रम नहीं हो सकता है।। इस पर यह प्रश्न होता है कि यदि प्रत्येक पदार्थ के कार्यकारण
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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