SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३० तत्त्वार्थसूत्र [५. २३-२४. एक जाति भापावर्गणा है । ये भाषावर्गणाए लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं। जिस काय-वस्तु ( Body ) से ध्वनि निकलती है उस वस्तु में कम्पन होने के कारण इन पुद्गल वर्गणाओं में भी कम्पन होता है जिससे तरंगें उत्पन्न होती हैं। ये तरंगें ही उत्तरोत्तर पुद्गल वर्गणाओं में कम्पन पैदा करती हैं जिससे शब्द एक स्थान से उद्भूत होकर भी दृसरे स्थान पर सुनाई पड़ता है। विज्ञान भी शब्दका वहन इसीप्रकार की प्रक्रिया द्वारा मानता है। यद्यपि नैयायिक और वैशेपिक शब्द को श्राकाश का गुण मानते हैं किन्तु जैन परम्परा में इसे पुद्गल द्रव्य की व्यञ्जन पर्याय माना है और युक्ति से विचार करने पर भी यही सिद्ध होता है। निश्छिद्र बन्द कमरे में आवाज करने पर वह वहीं गूंजती रहती है किन्तु बाहर नहीं निकलती। अब तो ऐसे यन्त्र तैयार हो गये हैं जिनके द्वारा शब्द तरंगे लक्षित की जाती हैं। इससे ज्ञात होता है कि शब्द अमृत आकाश का गुण न होकर पौद्गलिक है। इसकै भाषात्मक और अभाषात्मक ये दो भेद हैं। भाषात्मक शब्द के साक्षर और अनक्षर ये दो भेद हैं। जो विविध प्रकार की भाषाएँ बोल चाल में आती हैं जिनमें शास्त्र लिखे जाते हैं वे साक्षर शब्द हैं और द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों के जो "ध्वनिरूप शब्द उच्चरित होते हैं वे अनक्षर शब्द हैं । अभाषात्मक शब्द के वैस्रसिक और प्रायोगिक ये दो भेद हैं । मेघ आदि की गर्जना आदि वैरसिक शब्द हैं और प्रायोगिक शब्द चार प्रकार के हैं तत, वितत, धन और सौषिर । चमड़े से मढ़े हुए मृदंग, भेरी और ढोल आदि का शब्द तत है। ताँतवाले वीणा सारंगी आदि वाद्यों का शब्द वितत है। झालर, घण्टा आदि का शब्द धन है और शंख, वाँसुरी आदि का शब्द सौषिर है। शब्द के उक्त भेदों को इस प्रकार दिखाया जा सकता है
SR No.010563
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy